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आकाश-दीप
 


पूछा---"पथिक! तुमने देवता का निर्माल्य दूषित करना चाहा---तुम्हारा दण्ड क्या है?"

पथिक ने गम्भीर स्वर से कहा---"निर्वासन।"

"और भी कुछ?"

"इससे विशेष तुम्हें अधिकार नहीं; क्योंकि तुम देवता नहीं, जो पाप की वास्तविकता समझ लो!"

"और, मैंने देवता के निर्माल्य को और भी पवित्र बनाया है। उसे प्रेम के गंधजल से सुरभित कर दिया है। उसे तुम देवता को अर्पण कर सकते हो।"---इतना कहकर पथिक उठा, और गिरिपथ से जाने लगे।

वृद्ध ने पुकारकर कहा---"तुम कहाँ जाओगे? वह सामने भयानक शिखर है।"

पथिक ने लौटकर खड्ढ में उतरना चाहा। किन्नरी पुकारती हुई दौड़ी---"हाँ-हाँ, मत उतरना, नहीं तो प्राण न बचेंगे!"

पथिक एक क्षण के लिये रुक गया। किन्नरी ने वृद्ध से घूम-कर पूछा-–-"बाबा, क्या यह देवता नहीं है?"

वृद्ध कुछ न कह सका। किन्नरी और आगे बढ़ी। उसी क्षण एक लाल धुँधली आँधी के सदृश्य बादल दिखलाई पड़ा। किन्नरी और पथिक गिरि-पथ से चढ़ रहे थे। वे अब दो श्याम-विन्दु की तरह वृद्ध की आँखों में दिखाई देते थे। वह रत्तमलिन मेध समीप

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