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भिखारिन
 

निर्मल एक भावुक युवक था। उसने पूछा---"तुम भीख क्यों माँगती हो?"

भिखारिन की पोटली के चावल फटे कपड़े के छिद्र से गिर रहे थे। उन्हें सँभालते हुए उसने कहा---"बाबूजी, पेट के लिये।"

निर्मल ने कहा---"नौकरी क्यों नहीं करती? माँ, इसे अपने यहाँ रख क्यों नहीं लेती हो? धनिया तो प्रायः आती भी नहीं।"

माता ने गम्भीरता से कहा---"रख लो!" कौन जाति है, कैसी है, जाना न सुना; बस रख हो।"

निर्मल ने कहा---"माँ, दरिद्रों की तो एक ही जाति होती है।"

माँ झल्ला उठी, और भिखारिन लौट चली। निर्मल ने देखा जैसे उमड़ी हुई मेश्माला बिना बरसे हुए लौट गई। उसका जी कचोट उठा। विवश था, माता के साथ चला गया।

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"सुने री निर्धन के धन राम! सुने री---"

भैरवी के स्वर, पवन में आंदोलन कर रहे थे। धूप गंगा के वृक्ष पर उजली होकर नाच रही थी। भिखारिन पत्थर की सीढ़ियों पर सूर्य की ओर मुँह किये गुनगुना रही थी। निर्मल

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