पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


प्रतिध्वनि

मनुष्य की चिता जल जाती है, और बुझ भी जाती हैं, परंतु उसकी छाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, संभव है, उसके बाद भी घक्-धक् करती हुई जला करे।

तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे, उसकी नन्द ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ व्यंग के स्वर में कहा---"अरे मैया रे किसका पाप किसे खा गया रे!"---तभी आसन्न वैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग्य रोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था।

तारा सम्पन्न थी, इसलिये वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चला जाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ,

--- ७१ ---