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आकाश-दीप
 

एक सौ पाँच---एक,

एक सौ पाँच---दो,

एक सौ पाँच रुपये---तीन!

बोली हो गई। अमीन ने पूछा---"नीलाम को चौथाई रुपया कौन जमा करता है?"

एक गठीले युवक ने कहा---"चौथाई नहीं, कुल रुपये लीजिये और तारा के नाम की रसीद बनाइये।" रुपया सामने रख दिया गया; रसीद बना दी गई।

श्यामा एक आम के वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठी थी। उसे और कुछ नहीं सुनाई पड़ता था, केवल डुग्गियों के साथ एक-दो तीन की प्रतिध्वनि कानों में गूँज रही थी। एक समझदार मनुष्य ने कहा---"चलो अच्छा ही हुआ, तारा ने अनाथ लड़की के बैठने का ठिकाना तो बना रहने दिया; नहीं तो गंगा-किनारे का घर और तीन बीघे की बारी, एक सौ पाँच रुपये में! तारा ने बहुत अच्छा किया।"

बुढ़िया मन्नी ने कहा---"भगवान् जाने, ठिकाना कहाँ होगा!" श्यामा चुपचाप सुनती रही। संध्या हो गई। जिसका उसी अमराई में नीड़ था, उन पक्षियों का झुण्ड कलरव करता हुआ घर लौटने लगा। पर श्यामा न हिली; उसे भूल गया कि उसके भी घर है।

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