बुढ़िया के साथ अमीन साहब आकर खड़े हो गये। अमीन एक सुंदर कहे जाने योग्य युवक थे, और उनका यह सहज विश्वास था कि कोई भी स्त्री हो, वह मुझे एक बार अवश्य देखेगी। श्यामा के सौंदर्य को तो दारिद्रय ने ढँक लिया था; पर उसका यौवन छिपने के योग्य न था। कुमार यौवन अपनी क्रीड़ा में विह्वल था। अमीन ने कहा---"मन्नी! पूछो, मैं रूपया दे दूँ---अभी एक महीने की अवधि है, रुपया दे देने से नीलाम रुक जायगा।"
श्यामा ने एक बार तीखी आँखों से अमीन की ओर देखा। वह पुष्ट कलेवर अमीन, उस अनाथ बालिका की दृष्टि न सह सका, धीरे से चला गया। मन्नी ने देखा, बरसात की सी गीली चिता श्यामा की आँखों में जल रही थी। मन्नी का साहस न हुआ कि उससे घर चलने के लिये कहे! उसने सोचा, ठहरकर आऊँगी तो इसे घर लिवा जाऊँगी। परन्तु जब वह लौटकर आई, तो रजनी के अन्धकार में बहुत खोजने पर भी श्यामा को न पा सकी।
तारा का उत्तराधिकारी हुआ---उसके भाई का पुत्र प्रकाश।
अकस्मात् सम्पत्ति मिल जाने से जैसा प्रायः हुआ करता है, वही
हुआ---प्रकाश अपने-आपे में न रह सका। वह उस देहात में
प्रथम श्रेणी का विलासी बन बैठा। उसने तारा के पहले घर से
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