पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आकाश-दीप
 


कोस-भर दूर, श्यामा की बारी को भली-भाँति सजाया; उसका कच्चा घर तोड़ कर बँगला बन गया। अमराई में सड़कें और क्यारियाँ दौड़ने लगीं। यहीं प्रकाश बाबू की बैठक जमी। अब इसे उसके नौकर 'छावनी' कहते थे।

असाढ़ का महीना था। सबेरे ही बड़ी उमस थी। पुरवाई से घनमंडल स्थिर हो रहा था। वर्षा होने की पूरी संभावना थी। पक्षियों के झुण्ड आकाश में अस्तव्यस्त घूम रहे थे। एक पगली गंगा के तट के ऊपर की ओर चढ़ रही थी। वह अपने प्रत्येक पादविक्षेप पर एक-दो-तीन अस्फुट स्वर से कह देती, फिर आकाश की ओर देखने लगती थी। अमराई के खुले फाटक से वह घुस आई, और पास के वृक्षों के नीचे घूमती हुई "एक-दो-तीन" करके गिनने लगी।

लहरीले पवन का एक झोंका आया; तिरछी बूँदों की एक बाढ़ पड़ गई। दो-चार शाम भी चू पड़े। पगली घबरा गई। तीन से अधिक वह गिनना ही न जानती थी। इधर बूँदों को गिने कि आमों को! बड़ी गड़बड़ी हुई। पर वह मेघ का टुकड़ा बरसता हुआ निकल गया। पगली एक बार स्वस्थ हो गई।

महोखा एक डाल से बोलने लगा। डुग्गी के समान उसका "डूप-डूप-डूप" शब्द पगली को पहचाना हुआ-सा मालूम पड़ा। वह फिर गिनने लगी---एक-दो-तीन! उसके चुप हो जाने पर पगली ने डालों की ओर देखा, और प्रसन्न होकर बोली---एक-दो-