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आकाश-दीप
 

कोई कहता---"कला तो इधर आँख उठाकर देखती भी नहीं।"

दूसरा कहता---"रूपनाथ सुन्दर तो है, किन्तु बड़ा कठोर।"

तीसरा कहता---"रसदेव पागल है। उसके भीतर न-जाने कितनी हलचल है। उसकी आँखों में निच्छल अनुराग है; पर कला को जैसे सबसे अधिक प्यार करता है।"

उन तीनों को इधर ध्यान देने का अवकाश नहीं। वे छात्रा-वास की फुलवारी में, अपनी धुन में मस्त विचरते थे। सामने गुलाब के फूल पर एक नीली तितली बैठी थी। कला उधर देखकर गुनगुना रही थी। उसकी सजल स्वर-लहरी अवगुण्ठित हो रही थी। पतले पतले अधरो से बना हुआ छोटे-से मुँह को अवगुण्ठन उसे ढँकने में असमर्थ था। रूप एकटक देख रहा था और रस नीले आकाश में आँखे गड़ाकर उस गुंजार की मधुर श्रुति में कॉप रहा था।

रूप ने कहा---"आह, कला! जब तुम गुनगुनाने लगती हो तब तुम्हारे अधरों में कितनी लहरें खेलती हैं। भवें जैसे; अभिव्यक्ति के मंच पर चढ़ती-उतरती कितनी अमिट रेखायें हृदय पर बना देती हैं।" रूप की बातें सुनकर कला ने गुनगुनाना बन्द कर दिया। रस ने व्याघात समझ कर भ्रूभंग-सहित उसकी ओर देखा।

कला ने कहा---"अब मैं घर जाऊँगी, मेरी शिक्षा समाप्त हो चुकी।"

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