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कला
 

दोनों लुट गये। रूप ने कहा---"मैं तुम्हारा चित्र बनाकर उसकी पूजा करूँगा।"

रस ने कहा---"भला तुम्हें कभी भूल सकता हूँ!"

कला चली गई। एक दिन वसंत के गुलाब खिले थे, सुरभि से छात्रावास का उद्यान भर रहा था। रूपनाथ और रसदेव बैठे हुए कला की बाते कर रहे थे। रूपनाथ ने कहा---"उसका रूप कितना सुंदर है।"

रसदेव ने कहा---"और उसके हृदय के सौन्दर्य का तो तुम्हें ध्यान ही नहीं।"

"हृदय का सौंदर्य्य ही तो आकृति ग्रहण करता है, तभी मनोहरता रूप में आती हैं।"

"परन्तु कभी-कभी हृदय की अवस्था आकृति से नहीं खुलती, आँखें धोका खाती हैं।"

"मैं रूप से हृदय की गहराई नाप लूँगा। रसदेव, तुम जानते हो कि मैं रेखा-विज्ञान में कुशल हूँ। मैं चित्र बनाकर उसे जब चाहूँगा, प्रत्यक्ष कर लूँगा। उसका वियोग मेरे लिये कुछ भी नहीं है।"

"आह! रूपनाथ! तुम्हारी आकांक्षा साधन-सापेक्ष हैं। भीतर की वस्तु को बाहर लाकर संसार की दूषित वायु से उसे नष्ट होने के लिये••••••"

"चुप रहो, तुम मन-ही-मन गुनगुनाया करो। कुछ है भी

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