पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आकाश-दीप
 


तुम्हारे हृदय में? कुछ खोल कर कह या दिखला सकते हो?---"कहकर रूपनाथ उठकर जाने लगा।

क्षुब्ध होकर उसका कंधा पीछे से पकड़ते हुए रसदेव ने कहा---"तो मैं उसकी उपासना करने में असमर्थ हूँ।"

रूपनाथ अवहेला से देखता हुआ मुसकिराता चला गया।

×
×
×

काल के विश्रृंखला पवन ने उन तीनों को जगत् के अंचल पर बिखेर दिया, पर वे सदैव एक दूसरे को स्मरण करते रहे। रूपनाथ एक चतुर चित्रकार बन गया। केवल कला का चित्र बनाने के लिये अपने अभ्यास को उसने और भी प्रखर कर लिया। वह अपनी प्रेम-छवि की पूजा के नित्य नये उपकरण जुटाता। वह पवन के थपेड़े से मुँह फेरे हुए फूलों का श्रृंगार, चित्रपटी के जंगलों को देता। उसकी तूलिका से जड़ होकर भीतरी आन्दोलनों के वाह्य दृष्य अनेक सुन्दर आकृतियों की तिकृतियों में स्थायी बना दिये जाते। उसकी बड़ी ख्याति थी। फिर भी उसका गर्वस्कीत सिर अपनी चित्रशाला में आकर न जाने क्यों नीचे झुक जाता। वह अपने अभाव को जानता था, पर किसी से कहता न था। उसने आज भी कला का अपने मनोनुकूल चित्र नहीं बना पाया।

रसदेव का जीवन नीरव निकुंजों में बीत रहा था। वह चुप-चाप रहता। नदी-तट पर बैठे हुए उस पार की हरियाली देखते-

--- ८२ ---