पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आकाश-दीप
 


बराबर है। अब अशोक विदेश में भूखा न रहेगा। मैं पुस्तक बेचता हूँ।

यह तुम्हारा लिखना ठीक है कि एक आने का टिकट लगाकर पत्र भेजना मुझे अखरता है। पर तुम्हारे गाल यदि मेरे समीप होते तो उन पर पॉचों नहीं तो मेरी तीन उँगलियाँ अपना चिह्न अवश्य ही बना देतीं; तुम्हारा इतना साहस--मुझे लिखते हो कि वेयरिंग पत्र भेज दिया करो! ये सब गुण मुझमें होते तो मैं भी तुम्हारी तरह.......प्रेस में प्रूफरीडर का काम करता होता। सावधान, अब कभी ऐसा लिखोगे तो मैं उत्तर भी न दूँगा।

लल्लू को मेरी ओर से प्यार कर लेना। उससे कह देना कि पेट से बचा सकूँगा तो एक रेलगाड़ी भेज दूँगा।

यद्यपि अपनी यात्रा का समाचार बराबर लिख कर मैं तुम्हारा मनोरंजन न कर सकूँगा, तो भी सुन लो'•••••••••••' में एक बड़ा पर्व है, वहाँ '••••••••••••' का देवमन्दिर बड़ा प्रसिद्ध है। तुम तो जानते होगे कि दक्षिण में कैसे-कैसे दर्शनीय देवालय हैं, उनमें भी यह प्रधान है। मैं वहाँ कार्य्यालय की पुस्तकें बेचने के लिये जा रहा हूँ।

तुम्हारा,
 
अशोक
 

--- ८८ ---