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आख्यान]
८७
सावित्री

यह कहकर राजा रानी को सब बातें सुना गये। रानी ने हर्ष से सावित्री का मुँह चूमकर कहा---बेटी! तुम्हारे समान बेटी को पैदा कर मैं अपने को धन्य मानती हूँ। तुम्हारी वासना अधूरी नहीं रहेगी। तुम देवलोक की ब्रह्माणी के आशीर्वाद से उत्पन्न हुई हो। बेटा! तुम्हारे स्वर्गीय प्रेम की सुधा से पृथ्वी शीतल हो।

सावित्री सिर नवाये खड़ी रही। राजा ने मन ही मन कहा--मैं धन्य हूँ; देवी के समान पत्नी और पवित्रतारूपिणी बेटी की पवित्र दृष्टि से मैं धन्य हो गया।

राजा ने कहा---रानी! राजर्षि द्युमत्सेन इस समय वनवासी हैं। इससे वे इस समय राजसी ठाट-बाट से बेटे का ब्याह करने मद्रराज्य में नहीं आ सकेंगे। मैंने सोचा है कि कुछ सेवकों और प्रधान पुरोहितजी सहित राजर्षि द्युमत्सेन के आश्रम में मैं ही जाकर सावित्री का सत्यवान के हाथ में सौंप आऊँ।

रानी ने सम्मति दी। राजा अश्वपति सत्यवान से सावित्री का शुभ-विवाह करने के लिए वशिष्ठ-आश्रम में उपस्थित हुए।

राजर्षि धुमत्सेन ने राजा अश्वपति का आदर से स्वागत करके कहा---मद्रराज! आप कृपा करके मेरे आश्रम में पधारे हैं, इससे इस आश्रम का गौरव बढ़ा है। अभाग्य से मैं अन्धा हूँ। आपकी पवित्र मूर्ति मुझे नहीं दिखाई देती, किन्तु मैं भीतरी नेत्रों से आपकी सुन्दर मूर्ति को सदा देखा करता हूँ।

इसके बाद राजर्षि ने राज्य का कुशल-मङ्गल पूछकर कहा---आपकी लड़की उस दिन मेरे आश्रम में आई थी। वह स्त्री-रूप में साक्षात् देवी है। उसके शास्त्र-प्रेम और नम्र व्यवहार ने मुझे मोहित कर लिया है। मेरी स्त्री कहती है कि मनुष्य में इतनी सुन्दरता नहीं