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[ दूसरा
आदर्श महिला

भङ्ग होने के डर से तपोवन में गये नहीं, फिर भी मद्रराज की प्रजा के आग्रह से तपोवन की यात्रा बहुत मामूली भी नहीं हुई। राजकन्या सावित्री का ब्याह है, प्रजा सावित्री को बहुत प्यार करती है। इसलिए राजा की इच्छा न होने पर भी पुरवासी लोग राजकुमारी के ब्याह में राजा से पहले ही वशिष्ठाश्रम में पहुँच गये।

अश्वपति ने शुभ मुहूर्त में ऋषि-वेषधारी सत्यवान के हाथ में सावित्री का दान किया। उस कन्यादान के दिन अनेक प्रकार का और भी दान हुआ। राजा ने विद्यार्थी ऋषि-कुमारों को राजसी ढंग का पक्कान्न, और ऋषि-पत्नियों तथा ऋषि-बालकों को क़ीमती वस्त्र और आभूषण दान किये। नगर-वासिनी स्त्रियों ने मुनि-कुमारों और ऋषि-पत्नियों को वस्त्रों तथा अलङ्कारों से सजा दिया। उन लोगों की पवित्र देहों में सिंगार-पटार बड़ी शोभा देने लगा। आश्रमवासी मुनि लोग राजा के इस कन्यादान-सम्बन्धी दान से बहुत सन्तुष्ट होकर दोनों हाथों से दूलह-दुलहन को आशीर्वाद देने लगे।

राजा अश्वपति कुछ दिन वहीं रहे, फिर वे तपोवन-वासी मुनियों को दण्डवत् करके डबडबाई हुई आँखों से बेटी और दामाद के पास से बिदा हुए। मुनि लोग राजा के नम्र व्यवहार से सन्तुष्ट होकर आशीर्वाद देने लगे। जब मद्रराज तपोवन से बिदा हो गये तब वह तपोवन सूना सा मालूम होने लगा।

माता-पिता के विरह से व्याकुल होकर भी सावित्री अपना कर्तव्य नहीं भूली। राजकुमारी सावित्री ने सोचा कि अब मैं ऋषि की पत्नी हूँ इसलिए मुझे राजसी वस्त्र और अलंकारों की क्या ज़रूरत है? इसलिए उसने पिता के दिये हुए वस्त्रों और आभूषणों को उतारकर ऋषि-पत्नियों के योग्य गेरुए वस्त्र पहन लिये। सत्यवान की माता शैव्या देवी, नई बहू के सिंगार-पिटार में इस प्रकार तबदीली देखकर, एक ओर