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आख्यान]
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सावित्री

तो बहुत दुखित हुई और दूसरी ओर जन्म से राजमहल में पली हुई सावित्री का इस प्रकार आत्मत्याग देखकर अानन्द के आँसू बहाने लगी।

सावित्री सबेरे उठकर घर का सब काम-काज करती थी। उसकी तत्परता से कुटी के द्वार साफ़-सुथरे, आँगन झक-फक और सारा तपोवन सजा हुआ सा रहने लगा। सावित्री ने धरती पर गिरी हुई लताओं को वृक्षों की डालियों से बाँध दिया और वह सुबह-शाम उनको जल से सींचने लगी। सारांश यह कि सावित्री के ऐसे अनुराग से थोड़े ही दिनों में तपोवन की अपूर्व शोभा और भी बढ़ गई।

तपोवन में रहनेवालों ने देखा कि राजकुमारी सावित्री मानो साधना की पवित्रमूर्ति है। हर बात में सिद्धि तो उसकी बाट सी देखती रहती है। सावित्री की सेवा से गाय और अधिक दूध देने लगी। बछड़ा भी थन से अधिक दूध पीकर फुर्तीला हो गया। द्युमत्सेन और उनकी स्त्री ने सावित्री देवी की परिचर्या से नया बल पाया। एक उम्र की ऋषि-पत्नियाँ सावित्री से बहनपा जोड़कर प्रसन्न हुईं। मुनियों ने सावित्री के अपूर्व शास्त्र-ज्ञान और धर्मप्रेम को देखकर समझा कि वह कोई मामूली स्त्री नहीं है। सावित्री अब सत्यवान की रसीली संगिनी, सास-ससुर की भक्ति करनेवाली दासी, ऋषि-पत्नियों की हँसमुखी सखी, मुनि-कुमारों की प्रेम-मयी धाई, तपोवन की लताओं और वृक्षों के लिए साक्षात् वसन्त ऋतु, जंगली पशु-पक्षियों के लिए करुणा और अतिथि असहाय जनों की स्नेह से पसीजनेवाली माता है। ऐसी सावित्री को, बहू के रूप में, पाकर अन्धे राजा धुमत्सेन और उनकी पत्नी सोचतीं कि सावित्री हमलोगों को, इस दीन दुर्दशा में, विधाता का एकमात्र स्नेह से भरा आशीर्वाद है।

इस प्रकार, सावित्री ने तपोवन में एक प्रेम के राज्य को जमाया। उस राज्य का राजा सत्यवान है, अन्धे ससुर और सास उस राज्य