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आख्यान]
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सावित्री

ने मन ही मन कहा कि विधाता ने मुझे कुछ और सिखाने के लिए सावित्री को मेरे हाथ सौंपा है। सावित्री, विधाता का दिया हुआ, स्त्री-रूपी एक रत्न है।

एक दिन सत्यवान ने एकान्त में सावित्री को देखा। नीले आकाश के नीचे, नदी किनारे, दोनों एक शिला पर बैठ गये, सत्यवान ने सावित्री का कोमल हाथ पकड़कर कहा---हे दरिद्र का धन, सावित्री! जब अपनी गरीबी की काली छाया में तुम्हारे प्रसन्न मुख को म्लान देखता हूँ और जब आश्रम के धूल-धक्कड़ से तुम्हारे केशों को मलिन देखता हूँ तब मैं मन में सोचता हूँ कि तुमने मुझे वर कर अच्छा नहीं किया। खुशबूदार फूल देवता ही के गले में शोभा पाता है। यह कौस्तुभमणि दरिद्रता से ग्रसे अभागे के गले में क्योंकर शोभा पालेगा? सावित्री! उस वन के रास्ते में, पवित्र मुहूर्त्त में, तुमने इस अभागे को प्रेम की नज़र से क्यों देखा था?

सावित्री ने अनखाकर कहा---नाथ! स्त्री के हृदय को पुरुष नहीं समझ सकते। रमणी के हृदय में तो वासना की, विश्व को भी ग्रसनेवाली, ज्वाला नहीं है। स्त्री विश्वास से भरी हुई पवित्रता है। वह विधाता की मर्जी से पवित्र-हृदयवाले पुरुष के हृदय में मिल जाती है। हे पुरुषों में श्रेष्ठ! आपके हृदय में मेरे हृदय के देवता ने आनन्द का एक बाग देखा था, इसी से वह आपको पाकर तृप्त हो गया, उसकी कामना पूरी हो गई। नाथ! आप ऐसी कठोर बात कहकर मेरा जी क्यों दुखाते हैं? प्रेम कुछ धन-दौलत नहीं चाहता, वह तो सुध-बुध भुलानेवाले प्यार को चाहता है। दो हृदयों को ऐसे बन्धन में बाँध देना ही उसका मुख्य काम है कि जो कभी न टूटे। आर्यपुत्र! आप पण्डित हैं, आपने शास्त्रों को पढ़ा है और मैं बिना पढ़ी-लिखी हूँ। भला आपको प्रेम की महिमा मैं क्या समझाऊँगी? मैं आपको