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आख्यान ]
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सावित्री

कष्ट पा रही हो। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम कुछ दिन मायके में जाकर रहो।

सावित्री ने कहा---पिता जी! मुझे ऐसी आज्ञा मत दीजिए। मुझे कुछ कष्ट नहीं मालूम होता। आप लोगों की सेवा करना ही मेरा कर्त्तव्य है; और इसी में मुझे सुख है। जितने दिन जीती हूँ उतने दिन चरणों से अलग मत कीजिए।

राजा धुमत्सेन ने प्रेम से कहा--हे मङ्गलरूपिणी सावित्री! तुम्हारे अशान्त हृदय को जगत् की माता शान्त करें। प्रेम-स्वरूप भगवान् का प्रेमरूपी अमृत तुम्हारे थके-माँदे जीवन को चैतन्य कर दे---तुम कल्याण और पवित्रता में विजय पाओ।

सावित्री प्रणाम करके अपने काम पर चली गई। शैव्या देवी के आने पर धुमत्सेन ने कहा--"देखो, सावित्री पर घर का सब काम-काज मत छोड़ दो। मालूम होता है कि सावित्री आश्रम में हर घड़ी मेहनत करते-करते दुबली होती जाती है।" शैव्या देवी ने कहा---स्वामी! सुशीला सावित्री मुझे कोई भी काम नहीं करने देती। मैं कोई काम करने जाती हूँ तो वह मेरे हाथ से उस काम को लेकर खुद करने लगती और कहती है---'मैया! मैं आपको कोई काम नहीं करने दूँगी।' जो मैं उसकी बात नहीं सुनती तो वह आँखों में आँसू भरकर मेरी ओर ताकने लगती है। उसका उदास चेहरा देखकर मेरा जी न जाने कैसा हो जाता है। जब मैं काम छोड़ देती हूँ तब वह आनन्द से हँसती-हँसती उस काम को कर डालती है मानो सिद्धि सब कामों में उसकी बाट देखा करती है। नाथ! हम लोगों के बिछौने से उठने के बहुत पहले ही सावित्री उठकर घर का सब काम-काज कर रखती है। जब मैं बिछौने से उठती हूँ तब देखती हूँ कि