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[ दूसरा
आदर्श महिला

आश्रम में झाड़ू-बुहारू लग चुकी है---रास्ते के कंकड़-पत्थर हटा दिये गये हैं और धूल-धक्कड़ की सफ़ाई हो गई है। मेरी बहू साक्षात् लक्ष्मी है।

पत्नी के मुँह से यह बात सुनकर राजर्षि ने पूछा---तो क्या सत्यवान सावित्री को नहीं चाहता? क्या उस पर उसकी ममता नहीं है? साध्वी स्त्री के लिए पति का प्रेम न पाने से बढ़कर और कुछ कष्ट नहीं है।

शैव्या देवी ने कहा---मेरी समझ में ऐसा नहीं है। सत्यवान का सावित्री पर अत्यन्त प्रेम है और वह उसे हृदय से चाहता है, परन्तु मैं यह नहीं कह सकती कि विधाता सावित्री को अशान्ति की आग में क्यों इस तरह जला रहे हैं।

[ ८ ]

सावित्री बड़ी पण्डिता थी। उसने पिता के घर भरपूर शिक्षा पाई थी। इससे वह नित्य गिना करती और सोचा करती कि नारद का कहा हुआ वह दिन कब आवेगा जब कि एक वर्ष पूरा होगा। यह उसके रोज़ के कामों में से था। एक दिन उसने हिसाब लगाकर देखा कि उस दिन के आने में अब सिर्फ़ चार दिन बाक़ी हैं। देखते-देखते एक वर्ष बीत गया। सिर्फ़ चार दिन की कसर रह गई। इन चार दिनों के बाद अपने प्राणप्यारे स्वामी की होनेवाली अन्तिम दशा की याद कर सावित्री शोक से बिलकुल ही घबड़ा न गई। उसका हृदय कहने लगा कि सावित्री! डरो मत। तुम अपनी आत्मा के विश्वास पर मज़बूत बनी रहो; वही पक्के ज़िरहबख़्तर की तरह इस घोर संग्राम में तुम्हें सफलता देगा। सावित्री ने सोचा कि क्या निठुर यमराज मेरी सेज से मेरे स्वामी-देवता को छीन ले जायगा? पिता के मुँह से सुना है कि सती के सतीत्व से तो देवता भी डरते हैं। क्या मुझमें इतना भी बल नहीं कि मैं उस निठुर देवता की कठोर आज्ञा को तोड़ सकूँ? भाग्य के साथ मुझे लड़ना ही होगा।