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[ दूसरा
आदर्श महिला

पाऊँगी तभी यह जीवन रक्खूँगी---नहीं तो, मा के नाम पर, इस पापी शरीर को होम की इसी आग में पूर्णाहुति कर दूँगी, इसी में झोंक दूँगी।" यह सोचकर सावित्री ने आँखें मूँद लीं। उसने देखा कि लाल रङ्ग की, दो हाथोंवाली, अक्ष-सूत्र और कमण्डलु को हाथों में लिये हुए हंस पर सवार, ब्रह्माणी माना सूर्यमण्डल से पृथिवी पर आकर उससे कहती हैं---"बेटी सावित्री! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हुई हूँ, तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा। एकनिष्ठता के बल से तुम्हारा मरा हुआ पति जी जायगा। धर्मराज के वर से तुम्हारे ससुर के और पिता के वंश में कुछ कमी नहीं रहेगी। बेटी सावित्री! कर्म के भयानक युद्ध में तुमने विजय पाई है, तुम्हारा व्रत पूरा हो गया। बेटी! होम की अग्नि में पूर्णाहुति दो। पृथिवी पर उषा का उजेला कर्मक्षेत्र में लग जाने की सूचना दे रहा है।" सावित्री ने एकारक होश में आकर सुना कि वनदेवी पक्षियों के सुर में पूर्णाहुति का मधुर गीत गा रही है।

सावित्री तीन रात के व्रत को समाप्त करके उठी। उसका असा-धारण संयम और पक्की निष्ठा देखकर सब लोग धन्य-धन्य करने लगे। सास ने आकर कहा-"बहू! व्रत तो पूरा हो गया, अब देवता का कुछ प्रसाद ले लो।" सावित्री ने कहा--"अाज नहीं मा! आज आठ पहर स्वामी के साथ रहकर, कल दिन निकलने पर जब स्वामी का चरणामृत पी लूँगी, तब कुछ प्रसाद पाऊँगी; यही व्रत का नियम है। माजी! आप देखती हैं न कि तीन दिन के उपवास से मुझे कुछ भी क्लेश नहीं जान पड़ता। आप लोगों के पवित्र चरणों में भक्ति होने से आज का दिन भी बेखटके बीत जायगा।" शैव्या देवी ने व्रत में सावित्री का प्रेम देखकर सोचा कि जब त्रिरात्र व्रत में सम्मति दे दी है तब पारण के दिन ज़िद करके बहू का व्रत नहीं तोड़ूँगी।