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आख्यान ]
१०९
सावित्री

देव! मेरे स्वामी का प्राण लौटा दीजिए, नहीं तो मेरा धर्म जायगा। धर्म खोये बिना मैं सौ पुत्रों की माता कैसे हो सकूँगी?

यमराज ने सोचा---"बात तो ठीक है, मेरी बुद्धि न जाने कहाँ चरने चली गई थी!" आज मानो सतियों में श्रेष्ठ सावित्री ने उनके ज्ञानरूपी नेत्र के मैल को दूर कर दिया। धर्मराज ने संसार को जीतने-वाली उस शक्तिरूपिणी से कहा---"बेटी! यह ले अपने पति का प्राण। मैं समझ गया कि सती के समान बलवान् और कोई नहीं है। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे सिर का सेंदुर सदा बना रहे।" यह कहकर यम अपने लोक को चले गये।

[ ११ ]

स प्रकार मनोरथ सफल हो जाने पर सावित्री क्षण भर में वहाँ पहुँच गई जहाँ सत्यवान् की लाश पड़ी थी। उसने प्राण को सत्यवान की छाती से छुआया। सत्यवान ने तुरन्त जागकर कहा---सावित्री! सिर के दर्द से मैं बेहोश हो गया था। मेरा सिर अभी तक घूम रहा है। चारों ओर सुना दिखाई देता है।

सावित्री ने कहा---"नाथ! आप अभी अच्छे हो जायँगे, ज़रा विश्राम तो कीजिए। इस अँधेरी रात में अब आश्रम पर जाने की ज़रूरत नहीं।" सत्यवान ने कहा---नहीं सावित्री! सिर के दर्द के मारे बेसुध हो जाने से बहुत रात चली गई है। पिताजी को यज्ञ के लिए सबेरे ही लकड़ी चाहिए। चलो, हमलोग आश्रम को जल्दी चलें।

इधर धर्मराज के वरदान से राजर्षि का अन्धापन दूर हो गया। उन्होंने इतने दिनों के बाद, एकाएक दृष्टि पाने के कारण, चौंककर रानी शैव्या देवी से कहा---"रानी! मेरा सत्यवान और बहू क्या अभी तक वन से नहीं लौटे?" वे पुत्र और बहू के लिए व्याकुल होकर