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पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/१४

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आख्यान]
सीता


दिन-दिन बढ़ने लगी। बालिका की उस हृष्ट-पुष्ट देह में रमणी-स्वभाव-सुलभ नम्रता इस तरह चमकने लगी जैसे वर्षा के बादल में बिजली चमकती है। बेटी के कोमल शरीर में मानो किसी अशरीरी देवता की झलक देखकर राजा जनक ने प्रण किया--मेरे घर में रक्खे हुए शिव-धनुष पर जो वीर प्रत्यञ्चा चढ़ा सकेगा उसी को मैं यह कन्या-रत्न दान करूँगा।

उस शिव-धनुष के विषय में एक इतिहास है---एक बार प्रजापति दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ ठाना। वे अपने दामाद महादेव से प्रसन्न नहीं थे। इससे उस यज्ञ में उन्होंने महादेव को न्यौता नहीं दिया। एक तरह से महादेव का अपमान करना ही, उनके ठाने हुए, उस यज्ञ का मुख्य मतलब था। दक्ष की बेटी सती, न्यौता न आने पर भी, पिता के यज्ञ में गई। वहाँ पिता के मुँह से स्वामी की निन्दा सुनकर उसने शरीर-त्याग किया। देवता लोग इस शिव-रहित यज्ञ में गये थे। इस कारण शिव क्रोधाग्नि से एक धनुष बनाकर देवताओं को मारने पर उद्यत हुए। क्रुद्ध महादेव की विकट मूर्ति देखकर देवता लोग डर के मारे, उनको शान्त करने के लिए, जब स्तुति करने लगे तब महादेव ने सन्तुष्ट होकर वह विशाल धनुष देवताओं को दे दिया। देवताओं से उस धनुष को मिथिलापति राजा जनक के पूर्वपुरुष देवरात ने* पाया था। तब से वह मिथिलापति की राजधानी में ही रक्खा था।

सीताजी बड़ी ही रूपवती थी। उनके रूप पर मुग्ध होकर बहुतेरे राजपुत्र जनक के घर आते थे। किन्तु प्रायः सभी राजा जनक की भीषण प्रतिज्ञा से अपमानित होकर लौट जाते थे: मानो दारुण भाग्य उन लोगों को व्यङ्ग करके बिदा कर देता था। लङ्का-


  • इक्ष्वाकु के बाद ७ वीं पीढ़ी।