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आख्यान ]
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दमयन्ती

का जो स्वागत किया है वह मधुर, शान्त और उदार है। प्रेम से भरा हुआ तुम्हारा यह वचनरूपी अमृत ही इस मेहमान के लिए बहुत कुछ है। तुम्हारे हर्ष की साँस ही आज मेहमान के आदर के लिए जल आदि है; तुम्हारा हृदय-सिंहासन ही अतिथि के लिए आज आसन है। हृदय मानो कह रहा था---बालिका! तू ने हृदय के इस स्वागत को नहीं समझा!

दमयन्ती ने कहा--"हे बड़भागी! यहाँ और किसी आसन का इन्तज़ाम नहीं है। यद्यपि यह आसन आपके लायक़ नहीं है, तो भी कृपा कर आप इसी पर बैठ करके मुझे कृतार्थ कीजिए।" दमयन्ती का रूप देखकर नल अपनी सुध-बुध भूल रहे थे। उन्होंने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।

दमयन्ती ने पुरुष को चुपचाप खड़ा देखकर नम्रता से कहा--- महोदय! कृपा करके कहिए कि आप कौन हैं और यहाँ क्यों आये हैं। यह तो ज़ाहिर ही है कि आप कोई साधारण आदमी नहीं। यदि आप मामूली आदमी होते तो हज़ारों प्रतिहारियों और दासियों से रक्षित इस ज़नाने महल के कमरे में आप कैसे आ सकते? आपकी देह की सुन्दरता वीरता के साथ कैसी लुभावनी है! आपके अङ्ग की सुन्दरता देखने से तो यही जान पड़ता है कि आप साक्षात् कामदेव हैं। किन्तु कामदेव तो अनङ्ग है---उसके तो कोई भी अङ्ग नहीं है; तो क्या आप अश्विनीकुमार हैं? यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि अश्विनीकुमार का तो युगल-जोड़ा है। महाशय! आप कौन हैं? आप किस देश के हैं और आज इस स्वयंवर-सभा में जाने को तैयार बैठी हुई राजकुमारी के कमरे में आप क्यों आये हैं--यह बताकर मेरे अचरज को दूर कीजिए।

नल ने अपने बिना शान्ति के हृदय को कुछ स्थिर करके कहा---