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आख्यान ]
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दमयन्ती

नल--देवी! देवता लोग सदा गुणों ही का आदर करते हैं। इन्द्र ने देवता होकर भी पुलोमा राक्षस की बेटी शची को और भगवान् अग्निदेवता ने माहिष्मती के राजा नीलध्वज की बेटी स्वाहा को अपनी स्त्री बनाया है। मनुष्य के लिए सबसे उत्तम देवी का पद आज आपको अपने आप बुला रहा है। मैं आशा करता हूँ कि आप उसे ज़रूर मंज़ूर करेंगी।

दमयन्ती---हे देवताओं के दूत! आचरण के बल से ही स्त्री और पुरुष धन्य होते हैं। पुरुषों के लिए आदर्श-स्वरूप मेरे वे होनहार पति बल के लिए तीनों लोकों में मशहूर हैं, इसलिए मैं उनको देवता से घटकर कैसे कहूँ? देखिए, वे इन्द्र भी---जिनके बायें भाग में सदा जवान बनी रहनेवाली इन्द्राणी शोभायमान हैं-आज मनुष्य की साधारण बेटी के रूप पर मोहकर उसके स्वयंवर में आये हैं। सबको शुद्ध रखनेवाले अग्निदेव भी आज स्वाहा देवी की सुन्दरता को भूलकर एक हीना नर-कन्या को चाह रहे हैं। बहुत ही शान्त वरुण देवता अपनी रूपवती वरुणानी की प्रेम से कोमल भुजाओं की शीतल भेट को भूलकर तुच्छ मानवी के रूप पर लुभा गये हैं; और धर्मराज भी, आज न्याय की मर्यादा भूलकर, नारी के जीवन को देवी बनाने के लाभ से शोक के अथाह समुद्र में डुबोना चाहते हैं। मैं इन लोगों का भली भाँति आदर कैसे करूँगी? महाभाग! दूसरे के दिये हुए धन से किसी की इज़्ज़त नहीं बढ़ती! अपने पैदा किये हुए धन से असली मान होता है। इसी से मैं देवताओं का पसन्द किया हुआ, देवीत्व नहीं चाहती। मैं उन लोगों की सिर्फ़ कृपा चाहती हूँ। दया करके उनसे कह दीजिएगा कि ऐसी कृपा वे मुझ पर बनाये रक्खें जिससे मेरा नारीत्व बना रहे। अपनी पसन्द के मनुष्य-पति को पाने से ही मेरा मनोरथ सफल होगा।