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[ तीसरा
आदर्श महिला

विदर्भ---राजकुमारी के चरित्र के इस बल को देखकर नल बहुत खुश हुए और उन्होंने बिदा माँगी। दमयन्ती ने कहा---महात्मन्! आपका यह व्यवहार सराहना करने लायक़ नहीं। आप बिना पह- चान कराये ही क्यों जाना चाहते हैं? शास्त्रों में कहा है कि दो बातें करने से ही मित्रता हो जाती है। आपसे जब मेरी इतनी बातचीत हुई है तब आपके साथ मेरी मित्रता ज़रूर हो गई; मेरी समझ में देवताओं के दूत के सामने यह कोई नई बात न होगी।

नल ने कहा--सुन्दरी! मेरा और कुछ परिचय नहीं। मैं देवताओं का दूत हूँ, सिर्फ़ इतना ही परिचय काफ़ी है।

दमयन्ती---बड़े खेद की बात है कि राजकन्या के महल में आये हुए सज्जन, न्याय की मर्यादा को तोड़कर, बिना परिचय दिये ही यहाँ से खिसकना चाहते हैं।

अब नल असमञ्जस में पड़े। उन्होंने सोचा कि अपना परिचय बिना दिये कैसे जाऊँ! नल ने कहा---राजकुमारी! साधु लोग अपने मुँह से अपना नाम कभी नहीं लेते। बतलाओ, मैं अपना नाम कैसे लूँ? और आप यह जानकर ही क्या करेंगी? अगर आपको जानने की बड़ी इच्छा ही हो तो यही जानियेगा कि मैं विदर्भ-राजकुमारी के स्वयंवर में आया हुआ एक राजकुमार हूँ।

दमयन्ती के चित्त में अचानक आशा की रेखा दीख पड़ी। उसने हंस के मुँह से महाराज नल के अलौकिक गुणों की और रूप की जो बात सुनी थी, वह आज इस अजनबी की मूर्त्ति में दिखाई दी। दमयन्ती सोचने लगी कि इस समय अगर हंस से एक बार और भेट हो जाती तो आँख-कान का यह झगड़ा मिट जाता। अचानक उसके चित्त पर निषध-राज का चित्र खिंच गया। दमयन्ती ने देखा कि मेरी आँखें इस पुरुष के सामने ताकने से लजाती क्या हैं, मानो