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आख्यान ]
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दमयन्ती

संकोच चित्त को दबा रहा है। वह सोच रही है कि ये सुघड़ युवक अगर निषध-राजकुमार होते---

कुछ देर के बाद हृदय के वेग को रोककर नल ने दमयन्ती से कहा---राजकुमारी! मैं देवताओं का दूत हूँ, इसलिए मुझसे कुछ पूछ-ताछ करना नियम के विरुद्ध है। क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि आपके मन को किस पुरुष ने चुरा लिया है?

दमयन्ती ने कहा---कुमार! यह तो बड़े अचम्भे की बात है! आप अभी तक मुझसे अपने को तो छिपाते ही जाते हैं किन्तु चतुराई से अपने प्रश्न का उत्तर मुझसे चाहते हैं। क्या आप नहीं जानते कि जो जैसा व्यवहार करता है उससे वैसा ही व्यवहार किया जाता है!

नल ने कहा---हे प्रिय बोलनेवाली! दूत के लिए अपना परिचय देना मना है, इसलिए मैं अपना परिचय नहीं दे सकता। दिल्लगी करने का मेरा इरादा बिलकुल नहीं है, किन्तु आप अपने मेहमान का निरादर कर रही हैं।

यह सुनकर दमयन्ती बहुत लजा गई। हृदय तो प्रकट करना चाहता था, किन्तु दोनों ओंठ दबा देते थे। किसी भी तरह मुँह से वह बात नहीं निकली।

तब दमयन्ती का इशारा पाकर पास की एक सखी ने कहा--- हे देवताओं के दूत! हमारी सखी ने निषध-राजकुमार नल को अपना मन दे दिया है। हमारी सखी सदा उन्हीं महापुरुष के ध्यान में मग्न रहती है। देवता लोग ऐसी कृपा करें, जिससे स्वयंवर-सभा में राजकुमारी अपने मन-चाहे के गले में जयमाल डाले।

"हे अच्छे स्वभाववाली! क्या तुम लोगों ने निषध देश के राज-कुमार को कभी देखा है? शायद देखा नहीं है; नहीं तो तुम लोगों के सामने यह पहेली दरपेश ही न होती। मैं ही निषध देश