पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३४
[ तीसरा
आदर्श महिला

को यथायोग्य प्रणाम करती हुई स्वयंवर-सभा के दूसरे भाग में चली गई।

यह बड़ा कठिन स्थान है। यह स्थान प्रीति की दो धाराओं के मिलाप से पवित्र होगा। गंगा और यमुना के समान प्रीति की दो धाराओं के संगम-स्थान पर एक विकट उलझन आ पड़ी।

जब दमयन्ती वहाँ पहुँची तो वैतालिक बोल उठा---राजकुमारी! ये जो सामने चक्रवर्ती राजा के लक्षणोंवाले कुमार दिखाई देते हैं, और जिनकी विशाल भुजाएँ हैं, वे निषध देश के स्वामी महाराज नल हैं। इनमें नाम लेने के लिए भी आलस्य नहीं है। शास्त्रों का इन्हें खूब ज्ञान है और धनुर्वेद में तो ये अपना सानी नहीं रखते। ये दोनों की रक्षा करते हैं, इन्होंने इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है और ये प्रजा को भी खूब चाहते हैं। राजकुमारी! अगर आप चाहें तो इनको वर सकती हैं।

दमयन्ती का हृदय अभी तक इसी देवता को तो ढूँढ़ रहा था। आज, वैतालिक की यह मीठी बात सुनकर, हृदय की उछलती हुई प्रीति को शान्त करके दमयन्ती ने लजाती और मुसकुराती हुई नज़र उठाकर सामने देखा। अरे! यह क्या मामला है? स्वयंवर-सभा में नल की पाँच ऐसी मूर्त्तियाँ हैं जो कि आग के समान उजली हैं। भीम की कन्या यह देखकर चकराई और ठिठककर डर गई। उसके हाथ में जो फूलों की माला थी वह काँप उठी। माथे पर पसीना आ गया। देवताओं की चाल समझ दमयन्ती गिड़गिड़ाकर बोली---"हे देवताओ! आप लोग धर्म के रक्षक हैं; ऐसी कृपा कीजिए जिसमें मेरे सतीधर्म पर दाग न लगे और मैं अपने मन से वरे हुए पति निषध-राजकुमार को पहचान लूँ। हे देवताओ! मैं मनुष्य की तुच्छ बेटी हूँ। मुझे धर्मभ्रष्ट करके आप लोग देवता के ऊँचे पद