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आख्यान ]
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दमयन्ती

से नीचे न गिरिए।" यह बात कहते-कहते, वर्षा के जल से धुली हुई कमलिनी की भाँति, सुन्दरी दमयन्ती की बड़ी-बड़ी आँखें आँसुओं से भर गईं। उस सती के आँसुओं की छवि से इन्द्र आदि देवताओं के गले की मन्दार-वृक्ष के फूलों की मालाएँ फीकी पड़ गईं।

दमयन्ती को एकाएक याद आया कि देवताओं के पैर धरती से कुछ ऊपर उठे रहते हैं और उनकी आँखों की पलकें भी नहीं गिरतीं। दमयन्ती ने हिम्मत करके उन एक ही से रूपवाली पाँच मूर्त्तियों पर नजर गड़ाकर जान लिया कि उनमें से चार के नेत्रों की पलकें नहीं गिरती और उनके पैर भी भूमि से ऊपर हैं।

दमयन्ती ने इस फ़र्क़ को समझकर पाँचवें के गले में, भगवान् का पवित्र नाम लेकर, जयमाल पहना दी। देखा कि इन्द्र आदि चारों देवता तुरन्त ही अपना असली रूप धरकर उसे आशीर्वाद दे रहे हैं---"धन्य दमयन्ती! तुम्हारी यह पवित्र कथा भारत के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से सदा लिखी रहेगी।" यह कहकर देवता लोग गुप्त हो गये।

दमयन्ती ने जिस समय नल को जयमाला पहनाई उसी समय उस शान्त स्वयंवर-संभा में स्त्रियाँ मङ्गल-गीत गाने लगी; शंख बजने लगे; लोगों का गुल-गपाड़ा मच गया और भाँति-भाँति के बाजे बजने लगे।

सभी कहने लगे---दमयन्ती धन्य हैं, उन्होंने अपने मन के बल से देवताओं की एक नहीं चलने दी--उनकी छलना को व्यर्थ कर दिया। निषध-राजकुमार धन्य हैं, जिन्होंने ऐसा स्त्रीरूपी रत्न पाया है।

राजा भीम ने धूमधाम के साथ दमयन्ती का ब्याह कर दिया। आये हुए राजकुमार लोग दमयन्ती की इस अद्भुत निष्ठा से प्रसन्न होकर नये दम्पती (दूलह-दुलहिन) को धन्यवाद देते हुए अपने- अपने राज्य को लौट गये।