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आख्यान ]
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दमयन्ती

नल झटपट खेल छोड़कर उठ खड़े हुए। राजा की दीनता देखकर कलियुग हँसने लगा, किन्तु उसने यह नहीं समझा कि साधना भाग्य की गति को फेर सकती है। साधना भले कामों की माता है। महाराज नल के जी में आज साधना की ज़बर्दस्त इच्छा जाग उठी। इतने दिन वेपर्वाही की ठोकर से जिस मङ्गल-कलश को फोड़ डाला था आज साधना की उमङ्ग से उसमें फिर प्राण आ गये।

जब राजा ने देखा कि नगर में अब मेरे लिए जगह नहीं है, तब उन्होंने विपन्न-शरण वन में जाने की इच्छा की। क्योंकि जिसे कहीं भी आसरा नहीं उसको वन में ठौर ज़रूर मिलेगा, और जो शोकों से व्याकुल हो गया है, उसे वन में कुछ न कुछ चैन भी मिल ही जावेगा। राजा ने दमयन्ती से कहा---प्यारी! मुझ पर खोटे ग्रह की दशा है। प्राणसमान प्यारे इन्द्रसेन और इन्द्रसेना को लेकर तुम कुछ दिन नैहर में जा रहो। तब तक मैं अपने भाग्य को आज़माने के लिए जगह-जगह घूमूँगा। मुझे भाग्य से लड़ाई करके विजय पाना होगा।

दमयन्ती ने आँखों में आँसू भरकर कहा---महाराज! क्या आपको याद है कि जब आप जुए के नशे से पागल हो रहे थे तब मैंने कितने आँसू बहाकर आपका नशा दूर करने की कोशिश की थी? महाराज! याद है कि नहीं, प्रिय इन्द्रसेन और इन्द्रसेना के कोमल हाथों से आपको बाँध रखने का उपाय भी किया था? आप जिस दिन फूल से कोमल बच्चों के प्रेम को भूलकर चले गये थे, उसी दिन मैं समझ गई थी कि किसी बुरे नशे से आपकी बुद्धि मारी गई है। महाराज! मैंने उसी दिन इन्द्रसेन और इन्द्रसेना को, विश्वासपात्र सारथि, वार्ष्णेय के साथ अपने पिता के घर भेज दिया और मैं विपद के समुद्र में डूबते हुए आपका साथ देने के लिए तैयार हूँ। महाराज! अगर आपका वह नशा उतर गया हो तो आपको इस