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आख्यान ]
१४१
दमयन्ती

[ ९ ]

गहरी रात में स्वामी और स्त्री दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर राजधानी से बाहर निकले। इस बात का कोई निश्चय नहीं कि कहाँ जायँगे और यह भी मालूम नहीं कि वन है किस तरफ़ को! भगवान् का नाम लेकर बिना किसी ठिकाने को जाने ही चल पड़े।

वे नगर छोड़कर एक मैदान में आये। घना अँधेरा है, कुछ भी दिखाई नहीं देता। वे दोनों उस रात के गाढ़े अँधेरे के भीतर से चलकर एक सघन वन में घुसे। वन में अँधेरा और भी गहरा मालूम होने लगा। नल और दमयन्ती ने, किसी प्रकार, उसी वन में रात बिताई।

धीरे-धीरे पूर्व दिशा में ललाई छा गई। धरती ने मानों रात का सब विरह भूल कर प्रभात के सूर्य को आदर से वर लिया। पृथ्वी पर जाग जाने की धूम मच गई।

एक दिन नल ने वन में, सोने के से पंखोंवाली कुछ चिड़ियों को देखकर, उन्हें पकड़ने के इरादे से अपनी धोती खोलकर फेंकी। कलियुग की माया से रचे हुए वे पक्षी नल की धोती लेकर आकाश में उड़ गये। नल अचरज करके सोच ही रहे थे कि उन पक्षियों को यह कहते सुना---"हे नल! जिनके कोप से तुम्हारा राज-पाट छूटा और तुम भूखे-प्यासे होकर वन-वन भटक रहे हो, जिनके प्रभाव से निषध की राजभक्त प्रजा ने विपत्ति के समय तुम्हारा साथ तक नहीं दिया, हम वे ही पासे हैं; तुमको वन में लजवाने और सताने के लिए ही हमलोगों ने पक्षी बनकर तुम्हारी धोती छीन ली है।" महाराज नल किसी तरह पत्तों से अपना शरीर छिपाकर दमयन्ती के पास आये। जिस राज-शरीर पर रेशमी कपड़ा शोभा पाता था,