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आख्यान ]
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दमयन्ती

नेत्रों से नल का हँसता हुआ चेहरा और आनन्द देखकर सारा दुःख भूल गई।

महाराज नल, पत्नी को इस प्रकार उपदेश देते थे किन्तु उनके हृदय में चिन्ता की जो चिता जलती थी वह कहने योग्य नहीं। वह तेजस्वी बड़ा डीलडौल चिन्ता-रूपी घुन के लगने से हड्डी-हडी हो गया। महाराज नल को अपने लिए उतनी चिन्ता नहीं थी। जब वे देखते कि दमयन्ती के दोनों कोमल चरण वन में घूमने से लाल हो गये हैं, जब वे देखते कि वन की धूल लगने से दमयन्ती के काले-काले केश सफ़ेद से लगते हैं, और जब वे देखते कि उस मृगनयनी के नेत्रों में आँसू भर आये हैं तब उनकी छाती फटने लगती। वे सोचते कि हाय! जो राजरानी राजमहल में संगमर्मर के फ़र्श पर घूमा करती थीं, रनिवास में जिनके केशों को सैकड़ों दासियाँ सुगन्धित तेल से सँवारती थीं, और जिनके कान तक फैले हुए बड़े-बड़े नयनों में स्वर्ग की शोभा दिखाई देती थी, अहो दुर्दैव! आज वही वन में मारी-मारी फिरती हैं! किसी तरह हृदय के दुःख को भीतर ही दबाकर महाराज नल पत्नी को ढाढ़स दिया करते थे।

एक दिन नल ने सोचा कि दुष्ट कलियुग की कुटिलता से आज हमारी यह दुर्दशा है! मैं असहाय वन-वासी हूँ। सुना है कि अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण पासा खेलने में बड़े चतुर हैं। हमें, जैसे बने वैसे, राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर पासा खेलना सीखना चाहिए, किन्तु मेरे काम में दमयन्ती बाधक है।

यह सोचकर नल ने कहा---रानी! तुम इस प्रकार वनवासिनी होकर क्यों अपने मन से कष्ट भोगती हो? मैं चाहता हूँ कि तुम नैहर चली जाओ। कुछ दिन तक ग्रह की दशा भोग लेने के बाद मैं फिर तुमसे आ मिलूँगा। प्यारी! मेरी इस दुर्दशा में तुम क्यों कष्ट