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[ तीसरा
आदर्श महिला

सहोगी? और फिर भी सोचा कि प्राण-समान प्यारे इन्द्रसेन और इन्द्रसेना हम लोगों के बिना न जाने कितना कष्ट पाते होंगे। इस अवस्था में यदि तुम अपने पिता के घर जाओगी तो वे बहुत प्रसन्न होंगे। उनका उदास चेहरा अानन्द से खिल उठेगा।

दमयन्ती ने कहा---स्वामी! आपके साथ में मुझे ज़रा भी दुःख नहीं मालूम होता। दुःख की अवस्था में ही मनुष्य को हित-नाते की ज़रूरत होती है। प्यास लगने पर ही पानी अच्छा लगता है। नाथ! आपके दुःख का समय क्या सिर्फ़ आप ही का है? तो क्या आप मुझको अपने से जुदा समझते हैं? महाराज! स्त्री क्या पति के सुख की ही हिस्सेदार है---दुःख की नहीं? स्वामी के दुःख का बोझ उठाने में जो स्त्री बड़प्पन समझती है और जो ऐसा करने में समर्थ होती है वही धन्य है। महाराज! मेरी यही प्रार्थना है कि आप मुझे नैहर जाने की आज्ञा न दें और जो जाना ही हो तो, चलो दोनों आदमी साथ ही विदर्भ चलें। मेरे पिता के घर आप बड़े आदर-मान से रहेंगे।

नल बोले---यह नहीं हो सकता। शास्त्रों में कहा है कि दिन बिगड़ने पर कभी अपने हितैषी या नातेदारों के घर नहीं जाना चाहिए। इसलिए तुम्हारी इस बात को मैं नहीं मान सकता। इसके सिवा, मैं जिस जगह खूब ठाट-बाट से दल-बल लेकर गया था, वहाँ आज कौनसा मुँह लेकर पत्नी की आधी सारी पहने हुए जाऊँगा? रानी! यह मुझसे न होगा।

रानी---नाथ! इस बात को मैं बख़ूबी समझती हूँ, किन्तु क्या कीजिएगा? इस वन में आपके मुँह में कड़ुए, तीते, कषैले वन-फल कैसे दिया करूँ? क्या कहूँ महाराज! जिनको सोने की थाली में अमृत-समान खीर देते हुए भी जी हिचकता था उनको जब पत्तों के