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[ तीसरा
आदर्श महिला

गई। उन्होंने सोचा कि वेष बदलते वक्त मेरे शरीर की यह हालत मेरे लिए बहुत अच्छी है।


इतने में महाराज नल ने सुना---हे नल! चिन्ता छोड़ो। मेरे विष से तुमको कोई दुःख न होगा। मैं कर्कोटक हूँ। हे राजन्! मैं तुमको ये दो कपड़े देता हूँ; इनसे बदन ढकने पर तुम अपनी पहले की कान्ति फिर पा जाओगे। तुम कोशल-पति महाराज ऋतुपर्ण के जल्दी सारथि बनो। तुम्हारा यह कुरूप चेहरा और कूबरपन वेष बदलने का बड़ा उम्दा ज़रिया है। हे राजा नल! मेरे काटने को विधाता की ही शुभ आज्ञा समझना।" यह कहकर कर्कोटक एकाएक ग़ायब हो गया।

नल दोनों कपड़ों को लिये हुए राजा ऋतुपर्ण के पास पहुँचे और राजा से सारथि की जगह देने के लिए प्रार्थना करते हुए बोले--- "राजन्! मैं घोड़ों को चाल सिखाने में बड़ा चतुर हूँ। मैं निषध- नरेश नल का सारथि रह चुका हूँ।" ऋतुपर्ण ने खुशी से उनको सारथि की जगह पर भर्ती कर लिया।

[ ११ ]

धर दमयन्ती ने नींद टूटने पर देखा कि पूर्व दिशा में उषा की लाली छा रही है, किन्तु बग़ल में घोर अँधेरा है! महाराज कहाँ हैं? वे कहाँ गये? एक बार सोचा कि पास ही कहीं गये होंगे, अभी आते होंगे, किन्तु बहुत देर हो गई, अभी तक नहीं आये! तब क्या वे मुझे छोड़कर कहीं चले गये? हाय! हाय! ऐसा भी कही हो सकता है? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। वे अभी आवेंगे, आशा तो उसे ढाढ़स देने लगी, किन्तु हृदय साफ़ कहने लगा कि नल तुम्हें छोड़कर चले गये।