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आख्यान ]
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आदर्श महिला

धीरे-धीरे जब बहुत समय बीत गया, तब दमयन्ती घबराकर उसी वन में नल को ढूँढ़ने लगी। जल्दी-जल्दी चलने से, उसके सिर के बाल खुल गये। वह इधर-उधर भटकने और ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी---"हे नाथ! आपके प्रताप से डरकर शत्रु हथियार रख देते हैं, आपके बर्ताव से मित्र का हृदय शीतल होता है, फिर आप मुझको इतना क्यों सताते हैं? मैंने आपके चरण-कमलों में ऐसा क्या अपराध किया है जिसके लिए आपने मुझे छोड़ दिया? हे शास्त्रों के जानकार! आपने बहुतसे धर्म शास्त्र पढ़े हैं, किन्तु उनमें क्या कहीं पति की भक्त स्त्री को छोड़ देने की बात देखी है? आप जिसको इतना प्यार करते थे उसे ही अकेली छोड़कर क्यों चले गये?" दमयन्ती रोने लगी।

दमयन्ती रोती-राती समझ गई कि निठुर देवता की कठिन आज्ञा से महाराज नल ने ऐसा किया है। यह भी उसी की चाल है। यह सोचकर दमयन्ती कहने लगी---हे पापी प्राण! तू अब किस लिए पड़ा है? तेरे जीवन की सब साध तो पूरी हो चुकी। तू जल्द निकल जा। सब गुणों के जाननेवाले मेरे देवता-समान स्वामी तेरे कारण दुःख की आग में झुलस रहे हैं। हे राजन्! तुम तो दुखिया को सहारा देते हो। किसी के आँसू देखने से तुम्हारा धीरज छूट जाता है। आज तुम्हारी दमयन्ती रो-कलप रही है। क्या तुम मन की आँखों से यह नहीं देखते हो?

इस प्रकार विलाप करती-करती दमयन्ती पगली की तरह वन में चारों ओर घूमने लगी। कहीं मृग को देखकर वह पूछती है---"हे हिरन! तुम लोग वन में चारों ओर घूमते हो, तुमने कहीं मेरे हृदय-नाथ को तो नहीं देखा है?" वह एक अशोक के पेड़ के नीचे पहुँच कर बोली---हे अशोक! तुम स्त्रियों को बहुत प्यारे हो; देखो, मैं