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[ तीसरा
आदर्श महिला

अरे आधे वसन के तुम चोर हो कहँ छिप रहे।
देखो तुम्हारे विरह में उसने घनेरे दुख सहे॥
वह प्रेम प्यारी का बिसर, तुम क्यों निठुर ऐसे भये?
तेरे बिना उस दुःखिनी के प्राण होठों आ गये॥१॥
वह अन्न-जल छूती नहीं रो-रो बिताती रात-दिन।
कैसे कहूँ जो हो रही उसकी दशा है आप बिन॥
उस विजन वन में रात को सोती हुई को छोड़कर।
तुम चल दिये क्या धर्म है यह फिर न देखा लौटकर॥२॥
कार्य पति का मुख्य है पत्नी-सुरक्षा जानिए।
स्वामी बिना अबला सती का विफल जीवन मानिए॥
हा! गया सुख का दिन, रहे छिप शूर होकर भी डरे।
मलिना कमलिनी हो रही, कब प्रात होगा हे हरे॥३॥
दिन सोचकर दुर्भाग्य का इति धीरता न कभी तजो।
होगा मिलन फिर भी फिरे दिन ईश के पद को भजो॥४॥

देश-देश में, राज्य-राज्य में, जाकर दूत लोग इस पद्य को पढ़कर सुनाते, पर उन्हें कहीं से कुछ भी उत्तर नहीं मिला।

एक दिन, पर्णाद नामक एक ब्राह्मण ने अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण की सभा में जाकर दमयन्ती का सिखाया हुआ वह पद पढ़ा; किन्तु कोई उस कविता का उत्तर न दे सका।

ऋतुपर्ण राजा का बदशकल कुबड़ा सारथि बाहुक उस पद को सुनकर पर्णाद से एकान्त में बोला---हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! मैं आपको इस का उत्तर दे सकता हूँ। आप लौटते समय मुझसे इसका उत्तर लेते जाइएगा।

पर्णाद जब स्वदेश को लौटने लगा तब बाहुक ने उसको दमयन्ती के पद के उत्तर में आगे लिखी पंक्तियाँ लिखकर दे दीं---