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आख्यान ]
१५९
दमयन्ती

उस दूर कोशल देश में ऋतुपर्ण की नगरी जहां।
अाधे वसन का चोर दुख से है बिताता दिन वहाँ॥
वह स्वर्ण-पक्षी वस्त्र लेकर जब हमारा उड़ गया।
हा! तब तुम्हारे चित्त में कुछ कम विषाद नहीं भया॥१॥
प्यारी तुम्हारे प्रणय का साखी हमारा नयन है।
जो आँसुओं के नीर में रहता किये ही शयन है॥
यह भूल ही तबसे गया है---नींद कहते हैं किसे?
ईश्वर करे अब शीघ्र ही दर्शन तुम्हारे हों इसे॥२॥

पर्णाद नाम के ब्राह्मण ने विदर्भ राज्य में लौटकर, राज-सहल में आकर, दमयन्ती से कहा---राजकुमारी! मैंने निषध-नरेश को खोजते-खोजते अनेक देशों में भटककर, अन्त में कोशल-राज ऋतुपर्ण के कुबड़े सारथि से यह उत्तर पाया है।

दमयन्ती ने पर्णाद के दिये हुए पत्र को एक बार, दो बार, तीन बार---कई बार पढ़ा। पढ़कर वह समझ गई कि यह मेरे जीवननाथ की ही चिट्ठी है। बहुत दिनों तक दर्शन न पाने के कारण खेद के विष से जो देह जर्जर हो रही थी, उसमें अाज अाशा का अमृत बरस गया।

दमयन्ती ने हड़बड़ाकर पूछा--हे द्विजवर! कृपा करके बताइए कि ऋतुपर्ण राजा के सारथि का नाम क्या है और उनका चेहरा कैसा है।

पर्णाद---राजकुमारी! सारथि का नाम बाहुक है। वह बहुत दुबला-पतला और काले रङ्ग का है। फिर भी चेहरे से ऊँचे खान्दान का मालूम पड़ता है।

यह बात सुनकर दमयन्ती को धोखा हुआ। उन्होंने रानी से कहा--मा! ऋतुपर्ण राजा के सारथि ही बहुत करके निषध-पति