बातों से भरे इस जगत् में कार्य और कारण के सम्बन्ध को जान लेना बड़ा ही कठिन है। कार्य क्या है, कारण क्या है और किस कार्य की जड़ में भगवान् का कौनसा शुभ उद्देश भरा हुआ है---इसको पृथिवी की माया में लिपटे हुए प्राणी नहीं समझ सकते। इसी से इतनी अशान्ति है। देवी! जिस दिन मनुष्य को इसका ज्ञान होता है उसी दिन उसकी मनुष्यता पूरी होती है; उसी दिन ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का बड़ा मिलाप होता है; उसी दिन मनुष्य को निर्वाण-समाधि मिलती है। जिस दिन बाहरी जगत् के साथ भीतरी जगत् का मिलन साफ़ समझ में आ जाता है उस दिन हृदय में फिर कोई अशान्ति नहीं रहती। 'स्वामी का पद साध्वी स्त्री के लिए पवित्र तीर्थ है,' इसी ज्ञान को स्त्रियाँ अटल सत्य मानें। स्वामी का आचरण देखकर उसके बारे में जी में बुरा ख़याल रखना स्त्री के सती-धर्म में बट्टा लगाता है। खास कर, खूँखार जानवरों से भरे जङ्गल में सोती हुई पत्नी को छोड़ जाने से ही स्वामी को तुम अपराधी नहीं कह सकतीं और ऐसे समय में तो तुम उसको और भी अपराधी नहीं कह सकती जब कि उस पापी कलि का प्रभाव उस पर जमा हुआ रहा हो। मानिनी! खेद मत करो।
दमयन्ती और कुछ नहीं कह सकी। सारथि की ये बातें सुनकर उसका रहा-सहा सन्देह मिट गया। इतने दिनों से, हृदय के भीतर, जीवननाथ का वह जो ध्यान किया करती थी, देखा कि आज वह पूजा पूरी हुई है। दमयन्ती ने बाहुक की ओर नज़र फेरकर ताड़ लिया कि यही---राख में तुपी आग के समान, राहु से ग्रसे चन्द्रमा के समान---कलि के सताये हुए पुण्यश्लोक नल हैं। जब दमयन्ती अधीर हो गई तब नल ने "रानी! तुमको त्यागने के दिन से मेरी आँखों से आँसुओं की जो धारा जारी हुई है वह, आज तुम्हारी