पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान]
१७५
शैव्या

सुन्दरता की प्रतिमा की सलोनी शोभा को मैंने पहले कभी नहीं देखा था। आज शैव्या मेरी केवल पत्नी ही नहीं है, बल्कि वह आज मेरी प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली भाग्य-देवी भी है। फिर रानी से कहा—शैव्या, जान पड़ता है वासना की ज्वाला से मैंने हृदय को रेगिस्तान की ख़ुश्क धरती से भी भयानक बना दिया है, किन्तु प्राणप्यारी! मेरा वह मोह काटने से भी नहीं कटता है।

रानी—नाथ! मैं खूब जानती हूँ कि आप मुझे कितना प्यार करते हैं, किन्तु वह प्यार ही सीमा लाँघकर भयानक हो गया है। आपकी जो जीवन-नौका कर्त्तव्य-रूपी समुद्र की ऊँची-ऊँची लहरों को चीरती-फाड़ती नये वेग से जा रही थी वही अब अँधेरे में, दूसरे रास्ते, विपद की ओर जा रही है। क्या आप इसे समझते हैं?

राजा—रानी! अगर तुम पर मेरा प्यार है, अगर मैं तुम्हें पहचानता हूँ तो इसे सच समझना कि मेरी वह नौका डूबने न पावेगी। मुझ भूले-भटके के लिए तुम ध्रुव नक्षत्र हो।

रानी—महाराज! मैं आपसे आदर पाकर बड़भागिन हूँ। मैं जानती हूँ कि आप दया की प्रत्यक्ष मूर्त्ति हूँ, मनुष्यत्व के उज्ज्वल चित्र हैं। इसी भरोसे पर मैं आपकी भूल दिखाने की हिम्मत करती हूँ। राजन्! आप एक बार अपने कर्त्तव्य-पालन का विचार करें; अपनी प्रजा पालने की निपुणता का स्मरण करें। आप देखें कि प्रजापालन के पवित्र मंत्र पर ही कोशल का राज-सिंहासन रक्खा हुआ है। दुराचार को दण्ड देने से कोशलराज की हुकूमत ने इज्जत पाई है, किन्तु महाराज! आप, मेरे ही कारण, बहुधा राजकीय कर्त्तव्य पालने में टालमटोल कर देते हैं। अब समझ गये न, मैं क्या कहना चाहती हूँ।