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आख्यान]
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शैव्या


कुमार रोहिताश्व को छाती से लगाकर रानी के साथ हरिश्चन्द्र उस मूसलधार वृष्टि में एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये। हाय! जो महाराज हरिश्चन्द्र सैकड़ों राजाओं के थामे हुए राज-छत्र सिर पर धारणकर शोभा पाते थे, वे आज प्रतिज्ञा पालने के लिए बिना ही छत्र के पेड़ के नीचे नंगे पैर वर्षा के पानी में भीग रहे हैं। जो रानी राजमहल में सैकड़ों दास-दासियों से घिरी रहकर ऐश्वर्य और विलास में, तुरन्त खिली हुई कमलिनी की तरह, शोभा पाती थी वह आज खुली जगह में, वृक्ष के नीचे भीगे कपड़े पहने काँप रही है। जो राजकुमार राजा-रानी की आँखों की पुतली है, और जो सूर्यवंश की कीर्त्ति का पाया है, वह आज माता-पिता के पहने हुए कपड़ों के भीतर वर्षा से देह को बचा रहा है! सदा से पवित्र अयोध्या का राजसिंहासन इसी विख्यात कीर्त्ति से सजा हुआ है।

धीरे-धीरे वर्षा बन्द हुई। आकाश में दो-एक तारों के साथ-साथ शुक्र तारा दिखाई दिया। राजा-रानी ने पूर्व आकाश की ओर आँखें फेरीं तो देखा कि उषा की सुनहरी किरणें पृथिवी के अँधेरे को दूर करने के लिए आ रही हैं, किन्तु इनके सामने तो भयावने अँधेरे का राज्य है! राजा और रानी ने प्यारे रोहिताश्व को गोद में ले लिया। वे वृक्ष के नीचे से चलकर मैदान के बीचवाले रास्ते से चलने लगे।

लगातार तीन दिन चलकर वे काशी पहुँचे। वरणा और असी नामक दो नदियों के संगम पर, गङ्गा के किनारे, हिन्दुओं का प्रधान तीर्थ काशी है। हरिश्चन्द्र ने वरणा के किनारे खड़े होकर देखा कि किनारे के मन्दिरों और ऊँचे महलों की परछाईं वरणा के नीले जल में पड़कर तरङ्गों के ताल पर नाच रही है। मोक्ष पाने की इच्छावाले कितने ही योगी, ऋषि और गृहस्थ पत्थर की सीढ़ियों पर बैठकर वरणा की बहार देख रहे हैं। वरणा-तट की सुन्दरता और घास से