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[चौथा
आदर्श महिला

ढके हर मैदान की शोभा देखकर हरिश्चन्द्र पुलकित हुए। वरणा से लिपटकर जो हवा ठण्डी हो गई थी वह उनकी थकावट को दूर करने लगी।

रानी शैव्या के साथ हरिश्चन्द्र काशी की अपूर्व शोभा, सड़कों की भीड़ और भक्त नर-नारियों की भक्तिपूर्ण पवित्र मूर्त्ति देखकर प्रसन्न हुए। राजकुमार रोहिताश्व माता-पिता की गोद में लेटे-लेटे नये देश के नये दृश्य अकचकाकर देखने लगा।

धीरे-धीरे वे लोग मणिकर्णिका-घाट पर पहुँचे। वह स्थान उन्हें बड़ा मनोहर लगा। राजा हरिश्चन्द्र ने कहा—"शैव्या! देखो, वरणा की लहरें कैसी सुन्दर नाच रही हैं! मणिकर्णिका पर कितने लोगों की भीड़ है! पत्थर का कैसा सुन्दर घाट है। मेरी तो यह इच्छा होती है कि अब जितने दिन पृथिवी पर रहना हो उतने दिन इसी मणिकर्णिका-घाट के एक कोने में पड़ा रहूँ। देखो शैव्या, इस घाट पर कितने संन्यासी रहते हैं। चलो, हम लोग भी एक तरफ़ टिक रहें।

संन्यासियों से भरे मणिकर्णिका-घाट के एक कोने की धूल को रानी ने अपने कपड़े से झाड़कर राजा और पुत्र को बिठाया। वह आप भी पास ही बैठकर लोगों के शोर-गुल के बीच अपने भविष्य को सोचने लगी। बिना संगी-साथी के उस नये स्थान में जीवन की बीती हुई बातें याद आने लगीं। वह सोचने लगी—कहाँ अयोध्या का राजसिंहासन और कहाँ आज मणिकर्णिका की भूमि पर लेटना! हाय रे दुर्दैव! क्या तेरे मन में यही था?—रानी शोक से सुध-बुध भूल गई। आज उसे जगत् सूना-सा दिखाई देता है। आँखों के आगे दुर्भाग्य का अँधेरा इतना गाढ़ा हो गया है कि नहानेवाले हज़ारों स्त्री-पुरुष उसे नहीं सूझते। हाय! चिन्ता में पड़ी योगिनी उस भीड़-भरे मणिकर्णिका-घाट पर ऐसे सोच रही