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[चौथा
आदर्श महिला

लिये रहती हैं। स्वामी, आप तो सब समझते हैं, फिर क्यों इतने व्याकुल होते हैं। शोक न कीजिए। कौन कहेगा कि आपके सुयश की ढेरी में कल्याण का बोज अंकुरित नहीं है?

राजा ने टूटे स्वर से कहा—"देवी! मैं सब जानता हूँ, किन्तु आज होनहार की बात सोचकर मुझसे रहा नहीं जाता। कहाँ अयोध्या का राजसिंहासन और कहाँ मणिकर्णिका की धूल में लोटना! कहाँ राजसी ठाट और कहाँ आज भूख का कष्ट; कहाँ सैकड़ों दासदासियाँ सेवा किया करती थीं और कहाँ भाई-बन्धुओं से अलग अशान्त पड़े रहना; कहाँ दुखिया प्रजा का दुःख दूर करने के लिए राजभाण्डार का खुला रहना और कहाँ इस अभागे के सिर पर ऋण का बोझा! शैव्या! इस संसार में क़र्ज़दार होना बड़े दुःख की बात है। ऋण बड़ी बुरी तकलीफ़ों की जड़ है। जो क़र्ज़दार है उसके जी में तो डरावनी अशान्ति रहती है और उसे बाहर से लोगों की फटकार अलग सहनी पड़ती है। आज, सड़क के किनारे सोये हुए, इस बेफ़िक्र मज़दूर को देखकर मालूम होता है कि यह मुझसे बहुत श्रेष्ठ है। रानी! आज सबेरा होने के साथ-साथ ऋषि के भयङ्कर कोप की याद आ रही है। जब भौंहें चढ़ाये हुए ऋषि की आग-सी शकल की याद आती है तब मेरा धीरज छूट जाता है।" हरिश्चन्द्र विकल हो गये। शैव्या ने स्वामी के आँसुओं में अपने आँसुओं को मिला दिया; पत्थर की सीढ़ी पर आँसुओं की धारा बह चली। धीरे-धीरे सबेरा हुआ। वृक्षों पर बैठकर चिड़ियाँ चहचहाने लगीं। सबेरे की शीतल मन्द बयार ने सोये हुए जीवों के शरीर में नया बल भर दिया। पूर्वीय आकाश लाल रूप धारण करके हँसते-हँसते पृथिवी पर कर्म के गीत सुनाने लगा। शैव्या सबेरे की ठण्ढ में ज़रासा सो गई।