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आख्यान]
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शैव्या

राजा हरिश्चन्द्र न जाने क्या-क्या सोच रहे हैं। पूर्व आकाश में अचानक सूर्य को देखकर वे व्याकुल— हृदय से बोल उठे—"भगवन् सूर्यदेव! अभागी सन्तान का प्रणाम लीजिए। आज आपकी आँखें लाल-लाल क्यों हैं? आप पृथिवी पर आनन्द की किरणें बरसाते हैं; आपकी पवित्र सुन्दर मोहिनी मूर्त्ति देखकर जीवधारी लोग हाथ जोड़ आपका स्तोत्र पढ़ते हैं; किन्तु देव! आज आपकी ऐसी रौद्र मूर्त्ति क्यों देखता हूँ? क्या आपने भी अभागे पर क्रोधित होकर आँखें लाल कर ली हैं? क्यों न कीजिएगा? 'कुसमय मीत काको कौन?'" इस प्रकार चिन्ता से बेसुध होकर हरिश्चन्द्र पत्थर पर गिर पड़े। रात भर जागते बीती, सबेरे की ठण्ढी हवा ने हरिश्चन्द्र के शोक से तपे हुए प्राण को और भी व्याकुल कर दिया। हरिश्चन्द्र ने देखा कि ऋषि के क्रोध की अग्नि में सारा संसार जल गया है। चारों ओर धायँ-धाँयकर आग जल रही है! कहीं भागने का उपाय नहीं। प्राणप्यारा रोहिताश्व और प्राण से प्यारी शैव्या—सभी भस्म हो गये। आज अकेले हरिश्चन्द्र अपना कर्मफल भोगने के लिए जगत् को लीलनेवाली उस अग्नि में जल रहे हैं। इस प्रकार कष्ट से विकल होकर उन्होंने आँख खोली। देखा कि विश्वामित्र ऋषि दाहिना हाथ फैलाकर कह रहे हैं—लाओ महाराज, मेरी दक्षिणा। रात बीतने के साथ-साथ तुम्हारी ली हुई मुहलत का भी एक पक्ष बीत गया, आज सोलहवाँ दिन है।

हरिश्चन्द्र ने दुखे हुए हृदय से महर्षि के चरणों में प्रणाम किया। रानी शैव्या ने उठकर महर्षि को प्रणाम करने के बाद उनके चरणों की रज सोये हुए कुमार के सिर पर चढ़ाई।

विश्वामित्र ने राजा को चुप देखकर कहा—"हरिश्चन्द्र! मेरी दक्षिणा दो। अब देर क्यों लगा रहे हो?" हरिश्चन्द्र फिर भी चुप