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[चौथा
आदर्श महिला

टूटी लता की तरह शैव्या ऋषिवर के चरणों में गिरकर दया की प्रार्थना करने लगी। विश्वामित्र ने शैव्या की गिड़गिड़ाहट सुनकर कहा—तुम्हारी विनती का ढंग और दीनता, महाराज हरिश्चन्द्र की ढिठाई भुलाकर, मुझको प्रसन्न कर रही है। जो हो, अगर तुम हरिश्चन्द्र की सहधर्मिणी और अर्द्धाङ्गिनी हो तो स्वामी की विपत्ति में अपने धर्म और कर्त्तव्य का पालन करो।

शैव्या सब समझ गई। ऋषि की बात से उसको ज्ञान हुआ। उसने सोचा कि मैं महाराज की सहधर्मिणी हूँ—अर्द्धाङ्गिनी हूँ। इसलिए महाराज ने दक्षिणा देने की जो प्रतिज्ञा की है उसमें मेरी भी प्रतिज्ञा हो चुकी। अब राजा हरिश्चन्द्र से शैव्या बार-बार विनती करने लगी कि आप मुझे बेचकर ऋषि की दक्षिणा चुका दीजिए। शैव्या की उस मर्मभेदिनी बात को सुनकर और ऋषिवर के क्रोध को देखकर हरिश्चन्द्र मूर्च्छित हो गये। शैव्या ज़ोर से रो-रोकर कहने लगी—ऋषिवर! मेरे जीवन-देवता तो मुझे अनाथ करके चल बसे। अब मैं इस घृणित जीवन को रखकर क्या करूँगी? आपके पवित्र चरणों का दर्शन करते-करते मैं नदी में डूब मरूँगी। अपने प्यारे रोहिताश्व को आपके श्रीचरणों में सौंपे जाती हूँ। दया करके अनाथ बेटी की अन्तिम प्रार्थना पूरी कीजिए।

विश्वामित्र ने कहा—शैव्या! सब बातों में भाग्य ही बलवान् है। शोक छोड़ो। तुम्हारे स्वामी सिर्फ़ मूर्छित हैं। पल भरू में मूर्च्छा मिट जायगी। तुम्हें अपना कर्तव्य पालने के लिए यही अच्छा मौक़ा है।

स्वामी को मूर्च्छित जानकर शैव्या कुछ शान्त हुई। फिर वह महर्षि को प्रणाम करके पास ही एक स्थान पर बिकने के लिए जा बैठी।

वहाँ पर एक बूढ़ा ब्राह्मण घूमता-फिरता आ गया। शैव्या ने उसको देखकर कहा—"हे महाशय! क्या आप मुझे मोल ले