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आख्यान]
२०५
शैव्या

सकते हैं? मैं बड़ी विपत्ति में हूँ।" बूढ़े ने कहा—"हाँ, मुझे एक दासी की ज़रूरत है।" शैव्या ने कहा—"तो कृपा करके मुझे ख़रीद लीजिए।" बूढ़े ने पूछा—"तुमको कौन बेचता है?" शैव्या ने कहा—"मेरे स्वामी पर हज़ार मोहरों का क़र्ज़ है। दया करके आप हज़ार मोहरों में मुझे ख़रीद लीजिए।" बूढ़े ने कहा—इतनी मोहरें मेरे पास नहीं हैं। मैं पाँच सौ मोहरें दे सकता हूँ। चाहो तो यह पाँच सौ मोहरें ले लो।

रानी शैव्या ने पाँच सौ मोहरें विश्वामित्र को देकर कहा—"ऋषिवर! मेरे दाम पाँच सौ मोहरें मिली हैं, इन्हें लीजिए।" विश्वामित्र ने वह रक़म ले ली। अब शैव्या ने कहा—"मुनिवर! दासी बनने के पहले मैं एक बार महाराज के चरणों का दर्शन करके उनसे अन्तिम बिदा माँगना चाहती हूँ।" विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र की मूर्च्छा अभी नहीं टूटी है। तुम ब्राह्मण के घर जाओ। उनकी मूर्च्छा टूटने पर ही मैं यहाँ से जाऊँगा।

शैव्या ने ऋषि को प्रणाम किया; फिर वह मूर्च्छित स्वामी को प्रणाम और प्रदक्षिणा करके ब्राह्मण के पीछे-पीछे चली। उस समय कुमार रोहिताश्व शैव्या का आँचल पकड़कर रोने लगा। यह देखकर विश्वामित्र ने ब्राह्मण से कहा—"ब्राह्मण देवता! तुम अपनी ख़रीदी हुई दासी के लड़के को भी अपने घर ले जाओ। इसके लिए तुमको कुछ देना नहीं होगा।" ब्राह्मण ने कुछ सोचकर इसे मंज़ूर कर लिया। रोहिताश्व को गोद में लेकर रानी ब्राह्मण के पीछे-पीछे जाने लगी।

विश्वामित्र ने ज्योंही हरिश्चन्द्र के सिर पर हाथ फेरकर कहा—"हरिश्चन्द्र! उठो" त्योंही वे उठ बैठे और सामने रानी तथा कुँवर रोहिताश्व को न देखकर घबराहट से बोले—भगवन्, मेरी शैव्या और कुमार रोहिताश्व कहाँ गये? उनको न देखकर तो मुझे चारों और सुना लगता है। जल्दी बताइए, वे कहाँ हैं।