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[चौथा
आदर्श महिला


विश्वामित्र ने कहा—तुम्हारी स्त्री अपने को बेचकर, तुम्हारे ऋण का आधा हिस्सा चुकाकर, कुमार रोहिताश्व-सहित खरीदार ब्राह्मण के घर चली गई।

हरिश्चन्द्र गला फाड़-फाड़कर रोने लगे। उनकी रुलाई से दिशाएँ रो उठीं।

विश्वामित्र ने कहा—"हरिश्चन्द्र! जो हो गया सो हो गया, उसके लिए अब क्या पछताते हो?" हरिश्चन्द्र ने कहा—ऋषिवर, मेरी शैव्या दासी हो गई! सैकड़ों दास-दासियाँ जिसकी आज्ञा पालने के लिए सदा हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं, अयोध्या के राजमहल में जो बड़ी इज़्ज़त से विचरती थी, वह मेरी प्राण से प्यारी अयोध्या की रानी शैव्या आज दासी हुई! मुनिवर! मुझ अभागे की ऐसी हँसी मत उड़ाइए। सच बताइए, मेरी शैव्या और कुमार रोहिताश्व कहाँ हैं।

विश्वामित्र ने कहा—"हरिश्चन्द्र! मैं क्या झूठ कहता हूँ?" उन्होंने, चादर में बँधी शैव्या की दी पाँच सौ मोहरें दिखाकर कहा—"यह देखा हरिश्चन्द्र! तुम्हारी साध्वी पत्नी ने उस दक्षिणा की आधी रक़म चुका दी है जिसका देना तुम मंज़ूर कर चुके हो। अब बाकी पाँच सौ मोहरें तुम जल्दी चुका दो।" हरिश्चन्द्र कुछ भी स्थिर नहीं कर सके कि क्या कहें, और क्या करें। पागल की तरह वे न जाने क्या सोचने लगे। अन्त में उन्होंने कहा—"मुनिवरू, रानी शैव्या तो दासी हो गई! और मैं कर्मक्षेत्र के भयंकर भँवर में खड़ा हूँ! मैं अब इस प्रेतभूमि में रहना नहीं चाहता! अरे दुर्भाग्य! भयावने युद्ध में जिसका आश्रय करके मैं आगे बढ़ा था, जो दारुण विपत्ति के समुद्र में मुझ डूबते हुए के लिए नौका-समान सहारा थी, वह आज मुझ अभागे के लिए अपने को बेचकर दासी हो गई! जाय, सब जाय; सत्य तुम जाओ—धर्म तुम जाओ। इस पापी की