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आख्यान]
२०७
शैव्या

देह पर अब तुम लोगों को रहने का अधिकार नहीं। मेरी इस देह पर अब प्रेत का अधिकार है। जैसे होगा वैसे मैं प्यारी का उद्धार करूँगा। मेरी ये विशाल भुजाएँ शत्रुओं के सामने यम के दण्ड की भाँति शोभा पाती रही हैं। आज मैं इन्हीं भुजाओं के बल से क्षत्रियधर्म को बचाकर दास बनूँगा और उसी दासत्व से मिले हुए धन के बदले में अपनी शैव्या को छुड़ा लाऊँगा। अगर ऐसा नहीं कर सकूँगा तो यहीं गंगाजी में जीवन को त्याग दूँगा।" अब हरिश्चन्द्र वहाँ से चलने के लिए तैयार हुए।

क्रोध से काँपते हुए विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र! यह तुम क्या कहते हो? मेरा ऋण चुकाये बिना ही तुम आत्म-हत्या करोगे? क्या तुम्हें यह मालूम नहीं कि आत्म-हत्या करना महापाप है? मेरा ऋण न चुकाकर तो पाप कर ही रहे हो, ऊपर से आत्म-हत्या करके पाप का बोझा और क्यों बढ़ाओगे? हरिश्चन्द्र! सुनो, आज यदि तुम मेरी दक्षिणा की रक़म नहीं दोग तो तमझ लो कि मेरा यह दवा हुआ क्रोध सत्यानाश करने की ज्वाला फैलावेगा। समुद्र में बड़वानल और वन में दावानल होने की बात तुमने सुनी होगी, आज तुम्हारे अपराध से मेरा रोषानल तुम्हारे वंश को भस्म कर देगा। हरिश्चन्द्र! तुम्हें अभी तक इतना अभिमान है! तुम इस समय दो रास्तों के मोड़ पर आ पहुँचे हो। एक रास्ते में तुम्हारी प्रतिज्ञा है, और दूसरे रास्ते में अनन्त नरक। सोच लो, तुम किस रास्ते जाओगे।

हरिश्चन्द्र ने दुखी होकर कहा—नरक के रास्ते। अब मुझे कुछ सोचना-विचारना नहीं है। पत्नी के विरह से मैं मौत का सा दुःख पा रहा हूँ। पृथिवी मुझे इस समय नरककुण्ड-सी जान पड़ती है। ऋषिवर! मेरी प्रतिज्ञा भले ही टूट जाय; मैं जब पत्नी और पुत्र की रक्षा करने के अयोग्य हूँ तब मेरे नरकवास में और क्या बाक़ी है?