ब्राह्मणी उस दासी और दासीपुत्र के साथ कभी अच्छा और कभी बुरा बर्ताव करने लगी। सारांश यह कि, अभाग्य की सताई हुई शैव्या और रोहिताश्व ब्राह्मण के घर-ब्राह्मणी का बहुत कुछ अत्याचार सहकर-बड़े कष्ट से दिन बिताने लगे।
महारानी शैव्या ब्राह्मण के घर दासी बनकर, बड़े कष्ट में पराधीनता के अन्न से, दिन बिताने लगी। उन्हें हर काम में पहले समय के सुख की बातें याद आ जातीं। इससे वे कभी-कभी बेहोश हो जातीं; फिर सोचतीं कि व्यर्थ चिन्ता करने से क्या होगा। विधाता की यही मर्जी है। इस प्रकार शैव्या हृदय के दुःख को दबाकर किसी तरह दिन काटतीं। माता के अपार दुःख में रोहिताश्व एकमात्र सहारा-सा था।
दासी के ऊँचे मन को, देवताओं के ऊपर उसकी भक्ति को और सदाचार को देखकर ब्राह्मण देवता बहुत प्रसन्न हुए। ब्राह्मणी के जी में भी कभी-कभी दासी के लिए सहानुभूति होती किन्तु स्वार्थ की ज़बर्दस्त चिन्ता उस सहानुभूति को प्रकट न होने देती थी। इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर, ब्राह्मण और ब्राह्मणी ने विचार किया कि दासी के पुत्र को फूल चुन लाने का काम दिया जाय और इसके बदले में उसको खाना दिया जाय। शैव्या ने ब्राह्मणी की यह बात सुनकर पुत्र को ब्राह्मण की पूजा के निमित्त फूल चुन लाने की सलाह दी। रोहिताश्व पूजा के लिए फूल चुनने के काम पर तैनात हुआ।
एक दिन कुमार रोहिताश्व फूल चुनने वन में गया था कि वहाँ एक जहरीले साँप ने उसे डस लिया। बालक रोहिताश्व विष की ज्वाला से माता को पुकार-पुकारकर वहीं मर गया।
धीरे-धीरे यह भयानक समाचार शैव्या के कानों तक पहुँचा। वह एक-साँस वन में जाकर, मरे हुए पुत्र को छाती से लगा, रोने लगी। शैव्या का रोना सुनकर मानो वन के वृक्ष भी रोने लगे। पुत्र