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[चौथा
आदर्श महिला

हाय हाय, भाग्य में यह भी बदा था! मा होकर बेटे को मरघट में लाना पड़ा। हाय नाथ! कहाँ हो? देखते नहीं कि तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व आज सदा के लिए मरघट में सोया हुआ है।

अयँ! यह क्या? डोम का यह भाव क्यों? वह सोचने लगा—"मेरे बेटे का नाम भी तो रोहिताश्व था। यह स्त्री रोहिताश्व का नाम लेती है। तो क्या यह स्त्री मेरी शैव्या है?" यह सोचते हुए उसने रानी के पास जाकर घबराहट से पूछा—बताओ तो, बताओ तो, क्या तुम अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र की रानी शैव्या हो? यह मरा हुआ बालक क्या कुमार रोहिताश्व है?

अचानक बिजली चमकी। बिजली की रोशनी में दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। हरिश्चन्द्र चिल्लाकर बोले—"महारानी शैव्या! प्यारे रोहिताश्व! तुम लोगों की यह दशा!!" फिर मरे हुए पुत्र की छाती पर लोटकर हरिश्चन्द्र हाहाकार करने लगे।

शैव्या ने दूने दुःख से व्याकुल होकर कहा—"महाराज! आपका यह वेष!" राजा-रानी के व्याकुल रोदन से काशी का मरघट मानो रोने लगा। देर तक विलाप के बाद हरिश्चन्द्र ने कहा—"रानी! अब क्या रक्खा है? जीवन की सब साध तो पूरी हो गई। चलो, पुत्र की लाश को गोद में लेकर इस जलती हुई चिता में जल मरें। हम लोगों को अब जीने की ज़रूरत ही क्या है?" यह कहकर वे धधकती हुई चिता में घुसने को तैयार हुए।

"हैं हरिश्चन्द्र! तुम्हारे जैसे आदर्श-दम्पति को अपनी छाती पर बिठला करके धरती आज धन्य हुई है।" यह कहते हुए महर्षि विश्वामित्र ने आकर हरिश्चन्द्र का हाथ पकड़ लिया।

राजा और रानी ऋषि के चरणों में गिर पड़े। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। विश्वामित्र ने बड़े प्रेम से उनको उठाकर