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आख्यान]
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शैव्या

कहा—वत्स हरिश्चन्द्र! बेटी शैव्या! शोक छोड़ो। देखो, रात के अन्त के साथ-साथ तुम लागों की दुःख की रात भी बोत गई।

फिर विश्वामित्र ने रोहिताश्व के मुर्दा शरीर पर अपने कमण्डलु का जल छिड़का। इससे कुँवर जी उठा। वह बोला—"मा! तुम कहाँ हो?" शैव्या ने रोहिताश्व को गोद में लेकर मुनिवर के चरणों की रज उसके शरीर में लगा दी।

हरिश्चन्द्र ने कहा—"महर्षि! दुःख की परीक्षा में आपने मुझे अनन्त सुख का मालिक बनाया। आपके इस ऋण से मैं उऋण नहीं हो सकता।" हरिश्चन्द्र की इस बात को सुनकर विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र! जगत् में कर्मी कोई नहीं है, सब का मूल विधाता है। महाराज! धर्म ही सबसे ऊँचा है और धर्मात्मा को धर्म ही बचाता है—"धर्मो रक्षति धार्मिकम्।" कर्म से ही जगत् के कारोबार हो रहे हैं। तुम लोगों ने कर्म की लड़ाई में जय पाई है। धर्म तुम लोगों का सदा सहायक है। यद्यपि तुम तरह-तरह की दुर्दशाओं में अपने को भूल गये थे, फिर भी देखते तो हो कि इस संग्राम में जीत किसकी हुई? जीते तुम्हीं। राज्य छोड़ देने ही से आज तुम्हारी यह कीर्ति भुवनों में भर गई है; और मैंने, राज्य पाकर अपना सर्वनाश कर डाला है—ब्राह्मण के ब्राह्मणत्व को त्यागकर मैं बहुत गिर गया हूँ। हरिश्चन्द्र! तुम एक दिन राज्य दान करके भिखारी हुए थे—आज उस राज्य को लेकर फिर महिमा के मुकुट से सज जाओ। मुझे राज्य से या धन से कुछ सरोकार नहीं। मेरी ब्रह्म-साधना का मार्ग ही खुला रहे।

विश्वामित्र ने अयोध्या के राज-सिंहासन पर हरिश्चन्द्र को फिर बिठाया। राज्य में आनन्द की धारा बहने लगी।