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[पाॅंचवाॅं आख्यान
आदर्श महिला

क्या है मानो विधाता ने इस अनित्य पृथिवी पर सुन्दरता और पवित्रता की मूर्ति दिखाने के लिए ही चिन्ता को रचा है। चिन्ता के अङ्गों में ज्वाला नहीं है—केवल हृदय को प्रसन्न करनेवाली शान्ति है! चिन्ता को देखने से लालसा का क्लेश नहीं होता, होती है केवल तृप्ति। चिन्ता को देखने से निराशा की ताप से जले हुए अभागे के हृदय में भी आनन्द की हवा बहती है। विधाता की रची हुई सृष्टि में चिन्ता मानो एक ऐसी सुन्दर तसवीर है जिसमें कोई दोष नहीं।

चिन्ता की उस ममता-मयी मूर्त्ति में मानो विधाता की अपूर्व सृष्टि-कुशलता छिपी हुई है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य में क्या इतना रूप हो सकता है? सभी देखते हैं कि चिन्ता की बे-जोड़ कान्ति से चारों ओर उजेला-सा फैल जाता है। नारी का नारीत्व मानो चिन्ता के मुख और नेत्रों से निकला पड़ता है। चिन्ता मानो सुख के सरोवर में खिली हुई कमलिनी है जो मधुर वायु के झोकों से सदा सुख की लहरें ले रही है।

पिता के आदर और माता के प्रेम में चिन्ता का सुख से भरा बचपन बीत गया। चिन्ता ने अब माता की गोद छोड़कर कुछ स्वाधीनता से चलना सीखा है। उसको सखियाँ मिल गई हैं। वह उन्हीं के साथ खेलती है। महल की बग़ीची में सखियों के साथ जाकर वह फूल चुनती और माला गूँथती है। सहेलियों में कई हँसोड़ और दिल्लगीबाज़ थीं, किन्तु सखियों की तरह चिन्ता न तो ज़ोर से हँसती और न दिल्लगी-मज़ाक में रहती। वह हँसी और खेल के भीतर खोजती थी कि संसार में "और कुछ" क्या है। वाटिका में खिले हुए फूलों की मोहिनी शोभा को देखकर वह सोचती—अहा, फूल कैसा सुन्दर है! किन्तु जिनकी कृपा से यह