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[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

मनुष्य काम करके ही धन्य होता है। मुझे काम करना अच्छा लगता है।

लड़की के मुँह से ऐसी बातें सुनकर रानी को बहुत सन्तोष होता, किन्तु बालिका के माथे पर, काम की थकावट से, पसीने की बूँदें देखकर उनका जी आधा हो जाता।

काम-धाम को ही पसन्द करनेवाली चिन्ता सदा काम-काज में लगी रहती थी। दरिद्रों को दुःख से छुड़ाने और बीमारों की सेवाशुश्रूषा करने से वह सुखी होती थी। किसी के दुःख की बात सुनने पर उसकी आँखों से आँसू बहने लगते थे।

[२]

एक दिन वसन्त ऋतु में सबेरे राजकुमारी चिन्ता राजभवन की फुलवाड़ी में एक जगह बैठकर एक खिले हुए फूल की शोभा देख रही है। गहरी एकाग्रता से बालिका को वह फूल चित्र-सा मालूम हो रहा है। उसके काले-काले केश बिखरकर इधर-उधर लटक रहे हैं । बालिका की दृष्टि उसी फूल की ओर है, किन्तु गौर से देखने पर मालूम हो सकता है कि यद्यपि उसकी नज़र फूल की तरफ़ लगी हुई है तथापि उसका चित्त इस नाशवान जगत् के फूल को छोड़कर मानो अमरावती के खिले हुए भाव-पुष्प में मग्न है। चिन्ता का मुँह उजला, गम्भीर और प्रसन्न है। हृदय की पवित्रता ने मानो उसके मुँह को अपूर्व भाव से सजा रक्खा है। ऊपर से सबेरे के सूर्य की सुनहली किरणें पड़ने से वह कुञ्जों में बिचरनेवाली बालिका उषा की तरह शोभायमान हो रही है। चिन्ता का हृद्रय, चिन्ता देवी के न थकनेवाले पंख पर सवार होकर, दृष्टि और कल्प से बाहर किसी भाव-राज्य में चला गया है।

इतने में राजा चित्रसेन बग़ीची की सैर करने आये। उन्होंने देखा