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आख्यान]
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चिन्ता

कि उनकी प्राण से प्यारी बेटी लता-मण्डप के पास भाव में डूबी हुई बैठी है। राजा ने चिन्ता के गम्भीर भाव को देखकर सोचा कि मेरी लड़की ही सुनहली किरणों से जगमगाती उषा देवी की तरह लगती है या यह कोई देवी है जो मेरी लड़की के रूप में जन्म लेकर पूर्वजन्म के सुख से सनी हुई बातों को सोच रही है।

धीरे-धीरे लड़की के पास आकर राजा खड़े हो गये, किन्तु बालिका को इसकी कुछ खबर ही नहीं। राजा ने प्रेम से कहा—बेटी चिन्ता! आज यहाँ अकेली बैठी क्या सोच रही हो?

बालिका ने सावधान होकर कहा—पिताजी! मैं एक नज़र इस खिले हुए फूल को देखती थी; वह मानो मुझसे कहता था कि स्त्री उसी दिन सार्थक है जिस दिन कर्तव्य का प्रकाश उसको बड़प्पन दे दे। पिताजी! फूल का यह मौन उपदेश मेरे जी में धँस गया है। वह कहता था कि जगत् में मनुष्य दूसरों की भलाई-बुराई में कभी न फँसे—सदा कर्तव्य साधने में जुटा रहे। जगत् की बाधाएँ कर्तव्य साधने के पक्के इरादे पर पहले तो ज़बर्दस्त हमले किया करती हैं, किन्तु अन्त में, सिद्धि का रास्ता दिखाकर वे ही हृदय को बलवान बनाती हैं। पिताजी! लोग भ्रम में अन्धे हो रहे हैं, इससे इस पृथिवी पर वे अपने कर्तव्य के रास्ते को छोड़ देते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि मनुष्यों की सृष्टि भगवान् ही की कृपा से हुई है।

बेटी के इस अद्भुत ज्ञान को देखकर राजा चित्रसेन बहुत प्रसन्न हुए। उनकी आँखों ने प्रेम के आँसू बरसाकर हृदय का आनन्द प्रकट किया। राजा ने सोचा—मैं धन्य हूँ; मेरी यह बालिका शास्त्रों के ज्ञान में मानो सरस्वती है।"

अपूर्व सुन्दरी चिन्ता के रूप और लुनाई में हृदय की पवित्रता मिलकर बहुत ही, मनोहर हो गई है। बालिका चिन्ता गुड़िया का

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