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आख्यान]
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चिन्ता

दूत के मुँह से प्राग्‌देश के राजा के पुत्र श्रीवत्स की बात सुनकर चित्रसेन बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विवाह की तैयारी करने के लिए मन्त्री को आज्ञा दे दी।

राजा की आज्ञा से नगर सजाया जाने लगा। सजावट के सम्बन्ध में यही कहना काफ़ी है—"बनै न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाय मन तहाँ लुभाई।" चारों ओर पताकाएँ फहराने लगीं। सदर सड़क के दोनों ओर आम के पत्तों के बन्दनवार टाँगे गये। जगह-जगह पर महराबें लगाई गईं। राजधानी में मङ्गल-गीत और बाजे-गाजे की ध्वनि सुनाई देने लगी।

धीरे-धीरे विवाह का दिन आ गया। राजा चित्ररथ बड़े ठाट-बाट से बरात लेकर राजा चित्रसेन के राज में आ पहुँचे। राजा चित्ररथ का ऐश्वर्य अपार है। बरात की शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। बरात के आगे-आगे बड़े-बड़े हाथी जड़ाऊ फूलों से सजकर मस्तानी चाल चल रहे हैं। उनके पीछे सजे-सजाये बेहिसाब घोड़ों पर चढ़े योद्धा जा रहे हैं। साथ में, तरह-तरह के बाजे बज रहे हैं। धीरे-धीरे यह बरात राजा चित्रसेन की राजधानी में पहुँची। चित्रसेन ने बरातियों को जनवासा दिया और उनके खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध कर दिया।

शुभ मुहूर्त्त में चित्रसेन ने श्रीवत्स के हाथ में अपनी परम रूपवती बेटी चिन्ता को सौंप दिया। नये दम्पति एक-दूसरे के हाथ के स्पर्श से खुश हुए।

राजा चित्रसेन के आदर-सत्कार से चित्ररथ बहुत प्रसन्न हुए। प्राग्‌देश के राजा ने अन्त में राजधानी को लौटने के लिए समधी से बिदा माँगी। चित्रसेन ने यथायोग्य विनती करके चित्ररथ से और कुछ दिन रहने के लिए प्रार्थना की, किन्तु राज-काज की अधिकता